Friday, May 11, 2007

एक मुक्तक और एक गज़ल

दिन

किरणों की ले कलम धूप की स्याही से करता हस्ताक्षर
मिटा रहा रजनी के पल को उषा रंग की हाथ ले रबर
पलकों की कोरों के आंसू को अपना कर सके आईना
इस उधेड़बुन में रहती है रोज सुबह से सांझ ये दुपहर.

मांगे है

जो भी मिलता, हाथ बढ़ाकर लगता है कुछ मांगे है
इस बस्ती में मांग, दयानतदारी की हद लांघे है

उठापटक की राजनीति सी है जीवन की राह गुजर
दिन को रात, रात दिन को अब, नित सूली पर टांगे है

कौन चला है कितना पथ पर यह तो कोई सोचे ना
है उधेड़-बुन कौन यहाँ पर किससे कितना आगे है

कोयले की खदान सी काली रात न पत्ता भी हिलता
एक विरहिणी आस और बस इक मेरा मन जागे है

बिछी हुई है शाह राह सी लंबी सूनी तन्हा सांझ
लम्हा लम्हा यहाँ याद की बन्दूकों को दागे है

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7 comments:

Udan Tashtari said...

दोनों ही बहुत बेहतरीन:

उठापटक की राजनीति सी है जीवन की राह गुजर
दिन को रात, रात दिन को अब, नित सूली पर टांगे है


बहुत खूब.

परमजीत सिहँ बाली said...

मुक्तक और गजल दोनों बेहतरीन हैं। जमानें की नब्ज को अच्छा पकड़ा हैः-

कौन चला है कितना पथ पर यह तो कोई सोचे ना
है उधेड़-बुन कौन यहाँ पर किससे कितना आगे है

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर व सटीक लिखा है आपने ।
घुघूती बासूती

dhurvirodhi said...

भाई वो तो सब ठीक है पर,
ये रजनी और उषा कौंन हैं
एक के पल को दूसरे की रबर से क्यों मिटा रहे हो?

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है! धुरविरोधी जी के सवाल का जवाब दें!

Sajeev said...

राकेश जी आज तसल्ली से बैठ कर आप कि ख़ूब सारी रचनाएं पडी .....आनंद से हीआखें नम है ....... ध्यानावाद .... स्वप्न निकला मेरी आँख की कोर से और जा आपके नैन में सो गया..... ऐसा लगता है जैसे किसी अपने की सदा मिल गयी हो...

Geetkaar said...

भाई अनूपजी और धुरविरोधी साहब

जो राज दफ़्न हैं सीने की
दरिया जैसी गहराई में
क्यों खोलूँ उन्हें बताओ तो
क्यों करवाऊं रुसवाई मैं ????

समीरजी, परमजीतजी, नीरजजी तथा घुघूतीजी.

आपके स्नेहिल शब्द प्रेरणादायक हैं