दिन
किरणों की ले कलम धूप की स्याही से करता हस्ताक्षर
मिटा रहा रजनी के पल को उषा रंग की हाथ ले रबर
पलकों की कोरों के आंसू को अपना कर सके आईना
इस उधेड़बुन में रहती है रोज सुबह से सांझ ये दुपहर.
मांगे है
जो भी मिलता, हाथ बढ़ाकर लगता है कुछ मांगे है
इस बस्ती में मांग, दयानतदारी की हद लांघे है
उठापटक की राजनीति सी है जीवन की राह गुजर
दिन को रात, रात दिन को अब, नित सूली पर टांगे है
कौन चला है कितना पथ पर यह तो कोई सोचे ना
है उधेड़-बुन कौन यहाँ पर किससे कितना आगे है
कोयले की खदान सी काली रात न पत्ता भी हिलता
एक विरहिणी आस और बस इक मेरा मन जागे है
बिछी हुई है शाह राह सी लंबी सूनी तन्हा सांझ
लम्हा लम्हा यहाँ याद की बन्दूकों को दागे है
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7 comments:
दोनों ही बहुत बेहतरीन:
उठापटक की राजनीति सी है जीवन की राह गुजर
दिन को रात, रात दिन को अब, नित सूली पर टांगे है
बहुत खूब.
मुक्तक और गजल दोनों बेहतरीन हैं। जमानें की नब्ज को अच्छा पकड़ा हैः-
कौन चला है कितना पथ पर यह तो कोई सोचे ना
है उधेड़-बुन कौन यहाँ पर किससे कितना आगे है
बहुत सुन्दर व सटीक लिखा है आपने ।
घुघूती बासूती
भाई वो तो सब ठीक है पर,
ये रजनी और उषा कौंन हैं
एक के पल को दूसरे की रबर से क्यों मिटा रहे हो?
बढ़िया है! धुरविरोधी जी के सवाल का जवाब दें!
राकेश जी आज तसल्ली से बैठ कर आप कि ख़ूब सारी रचनाएं पडी .....आनंद से हीआखें नम है ....... ध्यानावाद .... स्वप्न निकला मेरी आँख की कोर से और जा आपके नैन में सो गया..... ऐसा लगता है जैसे किसी अपने की सदा मिल गयी हो...
भाई अनूपजी और धुरविरोधी साहब
जो राज दफ़्न हैं सीने की
दरिया जैसी गहराई में
क्यों खोलूँ उन्हें बताओ तो
क्यों करवाऊं रुसवाई मैं ????
समीरजी, परमजीतजी, नीरजजी तथा घुघूतीजी.
आपके स्नेहिल शब्द प्रेरणादायक हैं
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