Monday, July 27, 2009

आज फिर बदली हुई हैं केंचुलें

लड़खड़ाते ज़िन्दगी के कुछ अधूरे प्रश्न लेकर

चाहना है उत्तरों की माल अपने हाथ आये

कंठ का स्वर हो गया नीलाम यों तो मंडियों में

आस लेकिन होंठ नूतन गीत इक नित गुनगुनाये

मुट्ठियों की एक रेखा में घिरीं झंझायें कितनी

और है सामर्थ्य कितनी, कौन अपनी जानता है

चक्रव्यूहों में पलों के घिर गये हैं उन पगों की

संकुचित सीमायें कितनी ? कौन है ! पहचानता है

दंभ के लेकिन विषैले नाग से जो डँस गये हैं

सोच के उनके भरम की हैं चिकित्सायें न बाकी

रिक्त पैमाना,सुराही, रिक्त सारे मधुकलश हैं

त्याग मदिरालय, विलय एकाकियत में आज साकी

खो चुके विश्वास की जो पूँजियाँ, अपने सफ़र में

वे छलावों के महज, सिक्के भुनाना जानते हैं

आईने में जो नजर आता उसे झुठला सके क्या

बिम्ब जितने भी बनें, क्या वे उन्हें पहचानते हैं ?

टूट कर बिखरे सभी घुँघरू, मगर कुछ पायलों की

चाह है इक बार फिर से नॄत्य में वे झनझनायें

शब्द से परिचय मिटा कर आज भाषा के विरोधी

माँगते हैं इक हितैषी की तरह सम्मान पायें

3 comments:

श्यामल सुमन said...

बेहतरीन प्रस्तुति राकेश भाई। कुछ अधूरे प्रश्न लेकर --- वाह।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

निर्मला कपिला said...

शब्द से परिचय मिटा कर आज भाषा के विरोधी

माँगते हैं इक हितैषी की तरह सम्मान पायें
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति गहरे भाव लिये बेहतरीन रचना बधाई

ओम आर्य said...

umda prastuti ......bahut hi khub