लड़खड़ाते ज़िन्दगी के कुछ अधूरे प्रश्न लेकर
चाहना है उत्तरों की माल अपने हाथ आये
कंठ का स्वर हो गया नीलाम यों तो मंडियों में
आस लेकिन होंठ नूतन गीत इक नित गुनगुनाये
मुट्ठियों की एक रेखा में घिरीं झंझायें कितनी
और है सामर्थ्य कितनी, कौन अपनी जानता है
चक्रव्यूहों में पलों के घिर गये हैं उन पगों की
संकुचित सीमायें कितनी ? कौन है ! पहचानता है
दंभ के लेकिन विषैले नाग से जो डँस गये हैं
सोच के उनके भरम की हैं चिकित्सायें न बाकी
रिक्त पैमाना,सुराही, रिक्त सारे मधुकलश हैं
त्याग मदिरालय, विलय एकाकियत में आज साकी
खो चुके विश्वास की जो पूँजियाँ, अपने सफ़र में
वे छलावों के महज, सिक्के भुनाना जानते हैं
आईने में जो नजर आता उसे झुठला सके क्या
बिम्ब जितने भी बनें, क्या वे उन्हें पहचानते हैं ?
टूट कर बिखरे सभी घुँघरू, मगर कुछ पायलों की
चाह है इक बार फिर से नॄत्य में वे झनझनायें
शब्द से परिचय मिटा कर आज भाषा के विरोधी
माँगते हैं इक हितैषी की तरह सम्मान पायें
3 comments:
बेहतरीन प्रस्तुति राकेश भाई। कुछ अधूरे प्रश्न लेकर --- वाह।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
शब्द से परिचय मिटा कर आज भाषा के विरोधी
माँगते हैं इक हितैषी की तरह सम्मान पायें
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति गहरे भाव लिये बेहतरीन रचना बधाई
umda prastuti ......bahut hi khub
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