Wednesday, March 5, 2008

एक कोरा रहा सामने

रंग सिमटे रहे तूलिका में सभी, कैनवस एक कोरा रहा सामने
जुड़ सका कोई परिचय की डोरी नहीं, नाम जो भी दिया याद के गांव ने
भावनाओं की भागीरथी में लहर,अब उठाते हैं झोंके हवा के नहीं
लड़खड़ाते हुए भाव गिरते रहे, शब्द आगे बढ़े न उन्हें थामने
इसलिये गीत शिल्पों में ढल न सका, छैनियां हाथ में टूट कर रह गईं
और सीने की गहराई में भावना, अपनी परछाईं से रूठ कर रह गई
गुनगुनाती हुए कल्पना थक गई, साज कोई नहीं साथ देने बढ़ा
और पलते हुए भ्रम की गगरी सभी, एक पल में गिरीं, टूट कर बह गईं

3 comments:

अमिताभ मीत said...

आह ! क्या बात है. क्या बात है.

कंचन सिंह चौहान said...

इसलिये गीत शिल्पों में ढल न सका, छैनियां हाथ में टूट कर रह गईं

bhv evam shabd ka sundar samnvay

rakesh said...

strainthfull.