Wednesday, March 26, 2008

मौसम का बदलाव

कैलेन्डर कहता बसन्त है, किन्तु न ज़िद्दी मौसम माने
भोर हाथ में अब भी पहने हुए माघ के ही दस्ताने
खिड़की के पल्लों पर बैठी, दोपहरी की धूप अनमनी
और सांझ की सारंगी पर नहीं गूँजते प्रेम तराने

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यह मौसम का बदलाव सुनहरी यादों को देता निखार
रंगीन रात अंगड़ाई ले, यूँ लगे लुटाती मादकता
वह धीमी सी दस्तक कोई आती वंशी के स्वर जैसी
उसका स्वर मेरे अंतर में भर रहा बेकसी आकुलता

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फ़ागुन की रंगीनी ओढ़े, चैती की धूप गुनगुनी सी
भुजपाशों में भरती है तन कुछ और कसमसा जाता है
नव-दुल्हन सा घूँघट ओढ़े, संध्या आकर अँगनाई मे
गाती है उस पल हर सपना शिल्पित होकर आ जाता है

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3 comments:

Divine India said...

बिल्कुल हर बदलाव में सभी बदलते जाते हैं
दो घूंट ताजगी के हम रोज पीते जाते हैं…।
आज बहुत दिनों बाद ब्लाग पर आया… हमेशा की तरह बेहतरीन रचना पढ़ी…।
हमारी फिल्म की शूटिंग पूरी हो गई है… 20th of march ko opening hai...आपको खबर करुंगा…।

Udan Tashtari said...

क्या बात है भाई जी!!! बहुत बदलाव देख रहे हैं..जल्द ही आ रहा हूँ..२८ अप्रेल को. :)

Shar said...

sunder kavita hai!
Bachchon jaisi chulbuli si :)