कई दिनों से इधर उधर की बातें सुनाई दे रही थीं. वैसे हमने ऊटपटाँग बातों को पढ़ना तो छोड़ ही दिया है परन्तु फिर भी कभी कभी हवा के साथ उड़ते हुए छींटे इधर आ जाते हैं. अब ऐसे ही किसी एक छींटे ने सोई हुई पलकों पर दस्तक दी तो हुआ यह कि शब्द होठों से स्वत: ही निकल पड़े
स्वप्न तू अपने नित्य सम्भाल
न बदलेगा लगता ये हाल
चमन ही हुआ लुटेरा आज
कली को कैसे उमर मिले
भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है
विरहिणी छोड़ आज ये गांव
ढूँढ़ मत अंगारों में छांव
रखे यदि इधर किसी ने पांव
पांव रखते ही पांव जले
सरगम की चौखट पर छेड़ो नहीं रुदन की तानें
महली राजदुलार, तपन कब मरुथल की पहचाने
जिनके द्वारे पर बहार आकर के चंवर डुलाती
वे सुमनी सुकुमार कहो कब व्यथा बबूली जाने
यहां करुणा तालों में बन्द
रोशनी को जकड़े प्रतिबन्ध
करो तुम स्वयं आज अनुबन्ध
लगोगे इनके नहीं गले
कोई सभासद नहीं आज इस राजसभा में बाकी
हर जन सिंहासन की खातिर करता ताकाझांकी
चन्दा का जो मुकुट लगाये बैठे हुए यहाँ पर
लूटी गई उन्ही के द्वारा ही अस्मिता विभा की
आवरण बना ईश का नाम
कटी है नित्य भोर व शाम
कहें निज गॄह को तीरथ धाम
झूठ में सने हुए पुतले
चमन ही हुए लुटेरे आज, कली को कैसे उमर मिले
6 comments:
यूँ तो पूरी रचना ही बेहतरीन है, खास कर:
भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है
--वाह!! बहुत बढ़िया.
सुंदर रचना है ...
भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है
विरहिणी छोड़ आज ये गांव
ढूँढ़ मत अंगारों में छांव
रखे यदि इधर किसी ने पांव
पांव रखते ही पांव जले
अद्भूत रचना
सुन्दर रचना है. यही इस दुनिया आ असली चेहरा है
भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है
भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है
भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है
राजीव जी ये पक्तियाँ तो दिल के पन्नों पर सदा के लिए छप सी गयी है... धन्यवाद इतनी अच्छी कविता के लिए
भाई संजीव जी
धन्यवाद कि आपने हमारा नाम ही बदल दिया.
समीरजी, मोहिन्दरजी, रंजुअजी तथा महाशक्तिजी.
आपका स्नेह अमूल्य है
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