Friday, July 24, 2009

अब हैं नई नई उपमायें

बदल रहा परिवेश, बदलता समय, बदलती परिभाषायें
बदल रही हैं कविता में भी जो प्रयुक्त होती उपमायें


तुम अलार्म की घड़ी दूर जो रखती है वैरन निंदिया से
और मुझे दफ़्तर जाने में देर नहीं जो होने देती
और तुम्ही तो मोहक वाणी जीपीएस के निर्देशन की
कभी अजनबी राहों पर भी जो मुझको खोने न देती


तुमसे पल भी दूर रहूं मौं, सुभगे यह तो हुआ असंभव
तुम न साथ को छोड़ सकोगी कितनी भी आयें विपदायें


तुम रिपोर्ट वह ट्रैफ़िक वाली जिसके बिना गुजारा मुश्किल
तुम वह वैदर फ़ोरकास्ट हो, दिन को पल करती आवंटित
तुम मुझको प्रिय इतनी, जितनी सेल हुआ करती शापर को
या क्रिसमस पर किसी माल में हुई पार्किंग हो आरक्षित


तुम हो स्वर की डाक फोन की मोबाईल की लैंडलाईन की
बिना तुम्हारे क्या संभव है सामाजिक जीवन जी पायें


तुम ब्लकबैरी हो मेरी और नोटबूक प्रिये तुम्ही हो
और तुम्ही तो हो मीटिंग में साथ रहे जो लेजर पाईंटर
वेवनार की तुम्ही प्रणेता बिना तुम्हारे सब स्थिर होता
इर्द गिर्द सब हुआ तुम्हारे सूरज चन्दा जंतर मंतर


अंतरजाल विचरने वाली, एकरूप तुम पीडीएफ़ हो
बिना तुम्हारे सब अक्षम हैं खुद को परिभाषित कर पायें

6 comments:

Udan Tashtari said...

जबरदस्त प्रहार!!

तुम अलार्म की घड़ी दूर जो रखती है वैरन निंदिया से
और मुझे दफ़्तर जाने में देर नहीं जो होने देती
और तुम्ही तो मोहक वाणी जीपीएस के निर्देशन की
कभी अजनबी राहों पर भी जो मुझको खोने न देती


और सच कहूँ तो कितना यथार्थ भर डाला है इस रचना में.वाह!!

समयचक्र said...

बहुत ही बढ़िया रचना आभार

संगीता पुरी said...

गजब की रचना !!

Unknown said...

ye aaj dusra visfot kiya aapne...........
ha ha ha ha ha ha ha ha
anand aagaya
main toh samajhta tha ki aap khali dhir-gambhir wale hi hain lekin aap toh ye waale bhi khoob nikle .........
_____waah waah
badhaai !

Shar said...

:)

निर्मला कपिला said...

लाजवाब रचना तुलनात्मक् शैली अद्भुत है बहुत नहुत बधाई