Monday, April 28, 2008

ऑद लूं क्या मौन अब मैं ?

वक्त की कड़कड़ाती हुई धूप में, धैर्य मेरा बरफ़ की शिला हो गया
राह जैसे सुगम हो गई द्वार तक,पीर का अनवरत काफ़िला हो गया
जो कभी भी अपेक्षित रहा था नहीं, शून्य वह ही मेरी आँजुरि में भरा
एक कतरा था टपका जरा आँख से, खत्म जो हो नहीं सिलसिला हो गया------------------------------------------------------------------
भावना सिन्धु में यों हिलोरें उठीं, लग रहा जैसे सच ही प्रलय हो गई
आस के स्वप्न की रश्मि जो शेष थी, बढ़ रहे इस तिमिर में विलय हो गई
पीर के निर्झरों से उमड़ती हुई शब्द की धार ने जब छुआ पॄष्ठ को
अक्षरों को लगाये हुए अंक से लेखनी वेदना का निलय हो गई
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लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो
अश्रुओं के रंग में डूबी हु इ जो है कहानी
का परस पाकर किसी की आँख पल भर नम जरा हो

7 comments:

Manish Kumar said...

लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो
अश्रुओं के रंग में डूबी हु इ जो है कहानी
का परस पाकर किसी की आँख पल भर नम जरा हो


क्या बात है ! दिल को छू गई ये पंक्तियाँ

राजीव रंजन प्रसाद said...

राकेश जी,

हृदय स्पर्शी पंक्तियाँ है।

लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो

*** राजीव रंजन प्रसाद

अमिताभ मीत said...

क्या बात है भाई. सुबह सुबह आप को पढ़ना अपने आप में अलग सा आनंद देता है. कमाल की रचनाएं.

Alpana Verma said...

'अक्षरों को लगाये हुए अंक से लेखनी वेदना का निलय हो गई'
बहुत ही भाव भरी रचनाये हैं.

'लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो'

बहुत ही उम्दा भाव अभिवयक्ति!

rakhshanda said...

लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो

बहुत सुंदर,पहली बार पढ़ा आपको,बहुत अच्छा लगा.

Udan Tashtari said...

लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो


--वाह!! बहुत गहरे उतर गई. बधाई.

Anonymous said...

बेहतरीन रचना...