Tuesday, February 5, 2008

लुढ़का हुआ हाशिये पर

ऐसा अक्सर होता है कि लिखने के लिये किसी बहाने की जरूरत होती है. कई बार तो यह बहाना ईज़ाद भी किया जाता है. परन्तु कभी कभी ऐसा भी होता है कि लिखने के लिये जिन चीजों की आवश्यकता होती है उनमें से किसी एक के भी पास न होने पर एकाएक विराम सा लग जाता है. लगभग ऐसी ही समस्या पिछले कुछ दिनों रही जब साथ के लेखक जिनका लेखन प्रेरणादायक होता था ऐसे नदारद हो गये जैसे भोर के आते ही अंधेरे का झुटपुटा. लेकिन अभी अभी कोहरे को चीरती हुई किरन जैसे अवतरित हुए हमारे मित्र की रचना पढ़ कर कलम सहसा स्वयं ही मचल उठी यह लिखने को:-

शब्द, शिल्प, अनुभूति और है कौशल भी
लेकिन कोई गीत नहीं बन पाता है

होठों पर आते आते अक्षर बेसुध
उंगली अपनी छुड़ा शब्द से बिखर रहे
पंक्ति बुलाती रही पास रह रह उनको
अपनी ज़िद पर अड़े हुए, हो तितर रहे
खो बैठे पहचान अकेले रह रह कर
कोई अर्थ नहीं छू पाया तन मन को
एकाकीपन के अजगर की कुंडलियां
रही निगलती उदासीन सी सरगम को

लुढ़का हुआ हाशिये पर जो, दीवना
बार बार मुझको आवाज़ लगाता है

जाने कितनी बार फ़िसल कर चेह्रे से
गिरती है, फिर रह रह उठती एक नजर
जैसे प्रश्नचिन्ह संबोधन बनने की
कोशिश में करता है सीधी झुकी कमर
उत्तर लेकिन उठते हुए सवालों के
एक बार फिर दूर नजर से रहते हैं
और चक्र ये उठते गिरते रहने के
फिर से द्रुतगति होकर बहने लगते हैं

कुछ तलाश है, ये होता महसूस मगर
क्या तलाश है ? समझ नहीं आ पाता है

चाह रहा था मैं मेघों के उच्छवासों
को रंगीन बना कर फ़ागुन बरसा दूँ
बाहों में सतरंग लपेटे वनफूलों को
कर छंद, द्वार पर लाकर बिखरा दूँ
आंखों में बो दूँ मैं सरगम खुश्बू की
भर दूँ ला सांसों में गंधों की छाया
रंगूँ तूलिका सिन्दूरी अहसासों से
कर दूँ पूनम सा हर रजनी का साया

किन्तु तुम्हारे बिना, चना मैं एकाकी
और भाड़ फिर से साबुत रह जाता है

5 comments:

पंकज सुबीर said...

अनुपम है गीत किन्‍तु छोटा मुह बड़ी बात कहने का साहस कर रहा हूंकि
किन्तु तुम्हारे बिना, चना मैं एकाकी
और भाड़ फिर से साबुत रह जाता है
ये पंक्तियां परिमल काव्‍य के हिसाब से कुछ कठोर हैं और गीत के सौंदर्य को कम कर रहीं हैं ।जिस छंद में इनका उपयोग किया गया है वह अनूठा छंद है किन्‍तु इन पंक्तियों में चूंकि कुछ शब्‍द और प्रतीक वैसे नहीं हैं अत: ये पंक्तियां छंद से अलग लग रहीं हैं । क्षमा क्षमा और क्ष्‍मा के साथ

Udan Tashtari said...

भाई जी

बहुत प्रणाम करता हूँ. अरे आप तो सिर्फ कलम उठा लें तो काव्य संवर जाता है.

बस, जारी रहें. :)

नीरज गोस्वामी said...

खो बैठे पहचान अकेले रह रह कर
कोई अर्थ नहीं छू पाया तन मन को
एकाकीपन के अजगर की कुंडलियां
रही निगलती उदासीन सी सरगम को
अरे आप ऐसे कैसे कह रहे हैं??? अभी हम हैं ना.....उदासी को किनारे कीजिये और मुस्कुराती हुई रचना लिखिए...आप तो शब्द और भाव के जादूगर हैं...वाह...वा...
नीरज

पारुल "पुखराज" said...

sundar....चाह रहा था मैं मेघों के उच्छवासों
को रंगीन बना कर फ़ागुन बरसा दूँ
बाहों में सतरंग लपेटे वनफूलों को
कर छंद, द्वार पर लाकर बिखरा दूँ..sundar

राकेश खंडेलवाल said...

भाई पंकजजी

आपने बिल्कुल सही कहा. अंतिम दो पंक्तियां विशेष तौर पर समीर भाई को इंगित करके लिखी गईं थीं. ( यों तो पूरा गीत ही साथी लेखकों की निष्क्रियता को लक्ष्य करते हुए है) गीत के साथ लिखी हुईं मूल पंक्तियां हैं

किन्तु सांस के ॠण चुकता करते करते
आँखों का सपना आधा रह जाता है

आपकी पारखी नजर को सादर प्रणाम.

नीरजजी, पारुलजी तथा समीर भाई

आपके स्नेह का आभार.