Friday, January 12, 2007

मिलती नहीं गज़ल

आज डायरी के पन्नों पर दिखती नहीं गज़ल
जाने क्या हो गया कलम को लिखती नहीं गज़ल

देते हैं आवाज़ गली में आकर सौदागर
बिकते हैं ईमान, एक बस बिकती नही गज़ल

मिलतीं लंतरानियां किस्से और लतीफ़े खूब
बज़्म बज़्म में जाकर देखा मिलती नहीं गज़ल

सोज भरे लम्हों में दिल को बहलाती तो है
यादों की पर फटी कबा को सिलती नहीं गज़ल

बहर रदीफ़ काफ़िये की हैं बन्दिश बहुत कड़ी
सुबह शाम कोशिश करता पर निभती नहीं गज़ल

अश्कों से लफ़्ज़ों को सींचा, बोकर दर्द नये
गुलदस्ते लेकर बैठा, पर खिलती नहीं गज़ल

3 comments:

Udan Tashtari said...

वाह राकेश जी, बहुत सही.

मजा आ गया.

कितनी गज़लें लिख कर देखीं, चुन कर शेर नये
बेहतर जिसको इससे मानूँ, वो लिखती नहीं गज़ल.

-- :)

Divine India said...

गजल की आत्मव्यथा सुंदर गजल के माध्यम से...
एक अच्छी सोंच...'कहीं ऐ इस दौड़ते जीवन को
थोड़ा आराम मिल जाए, रुक कर मैं भी जरा इसे
गुण गुणा तो लू'

रंजू भाटिया said...

बाँधा है कई बार अपने भाव को लफ़्ज़ो की ज़ुबान में
ना जाने क्यू दिल में फिर भी उतरती नही ग़ज़ल
कह दिया सब हाले दिल अपना हमने यूँ लिख के
पर अशक़ो में ढल के भी नज़रो में ढलती नही ग़ज़ल!!

बहुत ही सुंदर लिखा है आपने ...ख़ासकर के यह पंक्तियाँ तो दिल को छू गयी

बहर रदीफ़ काफ़िये की हैं बन्दिश बहुत कड़ी
सुबह शाम कोशिश करता पर निभती नहीं गज़ल

अश्कों से लफ़्ज़ों को सींचा, बोकर दर्द नये
गुलदस्ते लेकर बैठा, पर खिलती नहीं गज़ल

ranju