दे रहे इम्तिहां, अर्थ ये पर नहीं, आप जब चाहें तब आजमाये रहें
ज़िन्दगी ये कोई टिप्पणी तो नहीं, जिस भी चिट्ठे पे चाहें लगाते रहें
दौर ऐसा है पाये बिना भेंट कुछ पत्तियां भीं नहीं हिलतीं अब शाख पर
आतीं गुलशन में चल कर बहारें नहीं, आप जितना भी चाहें बुलाते रहें
बेतुकी है गज़ल, काफ़िया न बहर, न रदीफ़ों से कोई रखा राफ़्ता
दाद इस पर न देगा कहीं कोई भी, आप जितना भी चाहें सुनाते रहें
आरजू-ए-गुहर लेके अब कोई भी, देखियेगा सराफ़े नहीं जायेगा
ख्वाहिशें पूरी होंगीं गली में इसी, आप दिल खोल कर खिलखिलाते रहें
तख्ते ताऊस पर जो बिठाये गये, उनकी ताकीद हम आदमी न रहें
उनकी नजरों में हम है सिरफ़ झुनझुने, जब भी चाहें हमें वे बजाते रहें
दौरे तकनीक में ये चुनावी सिले,दिल बहलता रहे हैं महज इसलिये
मोहरे पहले ही सब चुन लिये है गये, आप ठप्पा कहीं भी लगाते रहें
फूल जब भी जुदा हो गये डाल से, गिनतियां गिन रहे सांस लेते हुए
कल रहेंगे नहीं आंख खोले हुए शीश पर आप चाहे चढ़ाते रहें
4 comments:
कलम वही जिसका अस्तित्व खुद से ही ....
दाद के सहारे खड़ी...अब नहीं तो तब ढही...
थोड़ा नाराज़ लगे....
पहली बार आपकी रचना मेँ उर्दू के शब्दों को पाया, बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ.
काहे भाई साहब अंदर की बात बाहर कर रहे हैं ...:) :)
हा हा, बहुत सही है गज़ल. मजा आया, इसलिये और भी ज्यादा कि सब कोई गहराई तो नापेंगे नहीं. :)
बेजी, अनुरागजी और समीर जी.
धन्यवाद.
अनुरागजी - भावना भाषा की सीमायें नहीं जानती. वैसे सूचनार्थ मैं मुशायरों में उर्दू की रचनायें ही पढ़ता हूँ.
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