जिन्हें छोड़ हम पीछे आये, उनकी दशा वही बस जानें
लेकिन सहसा एकाकीपन में उदास हो जाते हैं हम
पग चुम्बन को हमें विदित है आतुर अब भी वह पगडंडी
जिस पर से चौपाल निहारी थी आते,पीछे मुड़ कर के
पीपल की वह झुकी हुई सी बूढ़ी शाखा बाट जोहती
जिस पर लटकाते थे धागे,सन्ध्या को मन्नत कर कर के
उनकी मौन पुकारों का स्वर बादल के डोले चढ़ आता
है तब सांझ सवेरे आंखें अकस्मात हो जाती हैं नम
दरवाजे पर नजर टिकाये बैठा होगा लंगड़ा टेसू
दीवाली के दिये अनगिनत जिसके साथ जलाये हमने
अटक होगी अभी नीम की डालों पर वे कटी पतंगें
जिनके साथ उड़ा करते थे नभ में रंग बिरंगे सपने
होता है कुछ भान इस तरह,ये सब महज भुलावा ही है
किन्तु न जाने क्यों मन इनसे बचने का न करता उपक्रम
अब भी तीज तला करती है शायद वहां तई में घेवर
अब भी उलझा करते होंगें फ़ैनी के लच्छों में लोचन
अब भी पंडा हुआ प्रतीक्षित हो संभव विश्राम घाट पर
लहर घटायें करती होंगी मंदिर में अब भी सम्मोहन
बढ़ आये हैं लगता अपनी परछाई से भी अब आगे
प्रगति मान अपनाया जिसको,लगता है वह मति का था भ्रम
वह कुम्हार का चाक, और वह बूढ़े बैलों वाला तेली
धोबी ग्वाला और ठठेरा,तकनीकी वह सन्तराज भी
वे बजाज,दर्जी हलवाई नाई पनवाड़ी फ़रेटिया
सम्बोधित करते हैं हमको आवाज़ें दे, लगे आज भी
किन्तु रोशनी की वे किरणें हैं वितान के परे दृष्टि के
उठते नहीं पांव जाने को, जंजीरों में जकड़े है तम
4 comments:
बढ़िया प्रस्तुति आभार
पीपल की वह झुकी हुई सी बूढ़ी शाखा बाट जोहती
जिस पर लटकाते थे धागे,सन्ध्या को मन्नत कर कर के
-ओह! भावुक करती रचना...अद्भुत!
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बेहद भावपूर्ण रचना...वो यादें जाने वाली नही हैं कम याद आती है पर जब-जब याद आती है निश्चित ही आँखो में आँसू आ जाते है....सुंदर रचना के लिए बधाई..प्रणाम स्वीकारें..
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