घुल गये प्रश्न उठते हुए व्योम में
दृष्टि में अनगिनत आये उत्तर उतर
वक्त चलता हुआ भी ठिठक कर रुका
इस अछूते अजाने नये मोड़ पर
हो गया फिर दिवस का निमिष हर विलय
एक ही बिन्दु में दृष्टि की कोर पे
बन हवा की तरंगें बजे हर तरफ़
बांसुरी से उमड़ राग चितचोर के
एक पल यह न्हीं व्याख्यित हो सका
शब्द सब कोष के कोशिशें कर थके
नैन के गांव में आ बटोही बने
कुछ सितारे भरी पोटली धर रुके
मौन क ओढ़ बैठे रहे थे अधर
बोल पाये नहीं थरथरा रह गये
भाव कुछ बाहुओं के सिरे पर रहे
प ही आप में कसमसा रह गये
एक विस्तार आकर सिमटने लगा
स अनागत अनाभूत पल एक में
कुछ भी ज\कहना अस्म्भव हुआ जा रहा है
पास पाया न कहने को कुछ शेष मैं
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:)
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