लिखूँ गीत मैं क्योंकर बोलो, कोई नहीं है गाने वाला
और भावनाओं की कीमत टके सेर भी नहीं आजकल
सुविधाओं में बँधी हुई हैं परिभाषायें सम्बन्धों की
सूरज उगते बदला करतीं अनुबन्धों की सभी विधायें
सन्दर्भों पर गहरी परतें चढ़ी धूल की मोटी मोटी
चाहत के प्यालों से बंध कर रह जाती हैं सभी तॄषायें
चढ़े मुलम्मे में हो जातीं चकाचौंध रह रह कर नजरें
खोटे और खरे में अन्तर करता कोई नहीं आजकल
बन्द पड़ी हैं अनुरागों के विवरण थे जिनमें वे पुस्तक
भावों की जो नदियायें थीं वे सारी हो गईं मरुथली
पद्चिन्हों के अनुसरणों की गाथायें कल्पित लगती हैं
और भूमि का स्पर्श नहीं अब कर पाती है कोई पगतली
वाल्मीकि, तुलसी, सूरा के लिखे हुए शब्दों से दूरी
तय कर पाने का भी उपक्रम करता कोई नहीं आजकल
नयनों के सन्देशों में अब ढला नहीं करती है भाषा
मेघदूत से ले कपोत सब होकर कार्यहीन बैठे हैं
भौतिकता के समीकरण में बंध कर हुए ह्रदय सब बन्दी
चुम्बक के ध्रुव भी लगता है साथ साथ अब तो रहते हैं
जितने भी मानक थे उनके अर्थ हुए हैं सारे नूतन
प्रासंगिकता के कारण को कोई पूछता नहीं आज्कल
4 comments:
वेदना को सही स्वर दिया है भाई आपने!!
बहुत खूब!
सुविधाओं में बँधी हुई हैं परिभाषायें सम्बन्धों की
सूरज उगते बदला करतीं अनुबन्धों की सभी विधायें
सन्दर्भों पर गहरी परतें चढ़ी धूल की मोटी मोटी
चाहत के प्यालों से बंध कर रह जाती हैं सभी तॄषायें
राकेश जी...दिल छू गई...आधुनिकता की सटीक चित्रण..सच्ची कविता बहुत कम ही लिखी जाती है आजकल...धन्यवाद
और भावनाओं की कीमत टके सेर भी नहीं आजकल
बिलकुल सही कहा बहुत अच्छी लगी आपकी रचना। शुभकामनायें
राकेश जी...दिल छू गई.
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