पता नहीं किसका प्रभाव लज्जा के बन्धन खोले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है
ओढ़ी हुई एक कमली की छायायें हो गईं तिरोहित
नातों की डोरी के सारे अवगुंठन खुल कर छितराये
बांधे अपने साथ सांस को द्रुत गति चले समय के पहिये
उगी भोर के साथ साथ ही संध्या के बादल घिर आये
वनपाखी मन द्वार तुम्हारे आने को पर तोले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है
कालिन्दी तट हो, सरयू हो पुष्पकुंज सुरपुर के चाहे
गन्धों के हर इक झोंके में सिमटे आई चित्र तुम्हारे
जुड़ कर रही नाम के अक्षर से सुधि की रेखायें सारीं
घिरे रात के अंधियारे हों या दोपहरी के उजियारे
संवरा शब्द अधर पर जब भी नाम तुम्हारा बोले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है
आईने के नयनों में जो बिम्ब संवरता तुम ही तो हो
तुम ही को तो झील बना कर चित्र टाँक देती बादल पर
तुमही तो हो बने अल्पना मन के बिछे हुए आंगन में
तुम ही हो चूनर प्राची की,तुम अंकित निशि के आंचल पर
धड़कन का पटवा सांसों की डोरी में तुमको पो ले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है
5 comments:
जुड़ कर रही नाम के अक्षर से सुधि की रेखायें सारीं
.. awesome.
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है
-वाह वाह!! गजब राकेश भाई..क्या बात है!! अभिभूत हुए!!
धड़कन का पटवा सांसों की डोरी में तुमको पो ले है
मन का इकतारा अब केवल तुमही तुमही बोले है
आज के गीतकारों का प्रतिनिधित्त्व करती अच्छी रचना
punah ek lajawaab rachna
आईने के नयनों में जो बिम्ब संवरता तुम ही तो हो
तुम ही को तो झील बना कर चित्र टाँक देती बादल पर
तुमही तो हो बने अल्पना मन के बिछे हुए आंगन में
तुम ही हो चूनर प्राची की,तुम अंकित निशि के आंचल पर.
तुमही तुमही...एक लाज़वाब भाव..सुंदर गीत के लिए बहुत बहुत बधाई ..राकेश जी हर बार बेहतरीन...प्रणाम स्वीकारें
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