Tuesday, April 27, 2010

आज लगा अपवाद हो गये

जो अपने से हो न सका है अब तक वह संवाद हो गये
एक अजनबी सी भाषा का अनचाहा अनुवाद हो गये

कथाकार तो राजद्वार पर चाटुकारिता में उलझे थे
इसीलिये संदेसे जितने नीतिपरक थे गौण रह गये
ललित भैरवी के पदचिह्नों पर चल पाने में अक्षम था
बंसी के स्वर सारंगी की ओढ़ उदासी मौन रह गये

बलिदानों के इतिहासों पर जमीं धूल की मोटी परतें
जहाँ प्राप्ति गलहार बनी थी,केवल वह पल याद हो गये

रथवाहों का कार्य शेष बस द्वारे तक रथ को पहुँचना
मत्स्य वेध का कौशल भी तो नहीं धनुर्धर में अब बाकी
चीरहरण के नाटक में सब पात्र भूमिका भूल गये हैं
कितना कुछ अभिनीत हो गया,कितनी शेष अभी है झांकी

जयमालों के सम्मोहन ने सब कुछ भुला दिया है मन को
आर्त्तनाद के स्वर द्वारे तक आये तो जयनाद हो गये

अक्षर अक्षर चिन चिन रखते कविताओं के कारीगर तो
सहज भावना को शब्दों का कोई रूप नहीं दे पाता
मल्हारों के मौसम में भी राजगायकी के लालच में
कुशल गवैय्या भी अब केवल मालकोंस ही मिलता गाता

कविता तो बन गई चुटकुला मंचों की आपाधापी में
गीत गज़ल के सभी उपासक आज लगा अपवाद हो गये

6 comments:

श्यामल सुमन said...

सच्चाई को सहज भाव से सजा सजाकर गीत बने
कविता में राकेश, सुमन को, लगता है नाबाद हो गए

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

AKHRAN DA VANZARA said...

बहुत उम्दा....
सटीक टिप्पणी .....!!!

आपकी कलम को साधुवाद ...!!!!

Udan Tashtari said...

कविता तो बन गई चुटकुला मंचों की आपाधापी में
गीत गज़ल के सभी उपासक आज लगा अपवाद हो गये


-अभी दो दिन भी नहीं बीते हैं..हास्य कवि सम्मेलन के नाम पर लॉफ्टर शो देख कर लौटे हैं..सच में.

दिलीप said...

बलिदानों के इतिहासों पर जमीं धूल की मोटी परतें
जहाँ प्राप्ति गलहार बनी थी,केवल वह पल याद हो गये

bahut khoob sir naman...

Anonymous said...

:(

विनोद कुमार पांडेय said...

आज के परिवेश,लोगों की पसंद,और कवियों की रचनाओं का चुटकुला में बदल जाना सबका एक सही चित्रण...बहुत सुंदर रचना बस थोड़ी देर हो गई मुझे इस रचना तक पहुँचने में...सुंदर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद राकेश जी