Monday, March 29, 2010

बस वही बिकते नहीं हैं

भेजते हैं ज़िन्दगी को पल निराशा के निमंत्रण
और अस्वीकार करने को, पता लिखते नहीं हैं

द्वार पर आते लिपट कर भोर की अँगड़ाईयों में
मुस्कुराते हर दुपहरी धूप की परछाईयों में
और जब सिन्दूर भरती मांग में संध्या लजाकर
उस घड़ी सन्देश भरते गूँजती शहनाईयों में

रात के पथ में बिछे रहते संवरते स्वप्न के संग
हां अगोचर हैं, तभी प्रत्यक्ष ये दिखते नहीं हैं

स्वर उमड़ता है गले से कुछ कहे, पर रीत जाता
उत्तरों के व्यूह में घिर प्रश्न सहसा बीत जाता
शब्द की गोलाईयों में भूलतीं अनुभूतियां पथ
भाव हो जाता विफ़ल इक बार फिर से, गीत गाता

आस ने भर अंक अपने रात दिन पाला जिन्हें था
खो गये वे प्रीत के पल आजकल मिलते नहीं हैं

उग रहे हैं शाख पर दिन की निरन्तर पत्र काले
झर चुके हैं पतझरों के साथ, हो बूढ़े उजाले
दिख नहीं पाती कलाई भी बिना अब आरसी के
लड़खड़ाती गिर रही धड़कन नहीं संभले, संभाले

सांस के सौदाई थैली खोल कर पथ में खड़े हैं
चाहते हैं क्रय जिन्हें कर लें, वही बिकते नहीं हैं

3 comments:

Shar said...

:) Kitna sunder likh rahe hain aap... uffff...nazar na lag jaaye kalam ko!

विनोद कुमार पांडेय said...

भाव तो हैं ही साथ ही साथ उन्हे सजाने वाले शब्दों का चयन भी बेहतरीन ...इससे बढ़िया कविता अगर और भी हो सकती है तो शायद अभी तक मेरी पहुँच के बाहर हैं...लाज़वाब..बधाई राकेश जी

Devendra Goswami said...

bahut khub likha hai apne....shabdon ke andar ki gahrai ko samajhna itna ashan nahi. ek rachnakar ke andar jo dwand chalti hai usi ke parinam se kavita ka janm hota hai