Wednesday, December 17, 2008

हम भी बिक जायेंगे

हम भी बिक जायेंगे


बेच रही पनिहारी गागर
लगता बादल बेचे सागर
कुछ ऐसा लगता है अब तो
राधा बेचे नटवर नागर
सिंहासन पर हर नगरी में
बैठे कंस नजर आयेंगे
आज बिक रहा जाने क्या क्या,
लगता कल हम बिक जायेंगे

नन्द गांव की नांदों में जब छल प्रपंच ही गया बिलोया
बरसाने में बारिश न कर उमड़ आँख में सावन रोया
गोकुल के गलियारे सारे हुए पूतना की जागीरें
दूध दही का सपना भी अब किसी सिन्धु में जाकर खोया

हुई होंठ की स्मित भी चोरी, टूटी हुई आस की डोरी
आगे बढ़ते हुए पांव जब बैसाखी पर टिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

वॄन्दावन के कुंजों में अब वॄन्द नहीं व्यापार उग रहा
आदर्शों के हर मोती को व्यभिचारी हो हंस चुग रहा
होता जब अभिषेक तिमिर का तब ही दीप करें दीवाली
सूरज की अगवानी होती, गया बीतता एक युग रहा

बुझी हुई हैं सभी मशालें और हाथ में केवल ढालें
खिड़की द्वारे तहखानों पर अब जब डाले चिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

दग्ध द्वारका कालयवन के अतिक्रमणों से होती रह रह
प्रद्द्युम्नी संकल्प सँवरते हैं पर दूजे पल जाते ढह
और रगों में अनिरुद्धों की होता नहीं प्रवाहित शोणित
हर आतंक और शोषण को होकर मौन सहज जाते सह

नहीं देखता कोई दर्पण, कर देता है सिर्फ़ समर्पण
निश्चित है भविष्य के पन्ने, सबको कह कर धिक जायेंगे
हम भी बिक जायेंगे

3 comments:

Shardula said...

जिसके पास चाँद और सूरज
उसे खरीद कौन पायेगा,
सारी दुनिया बिकती हो पर
वो कवि नहीं जो बिक जायेगा !

कहाँ से लायें सांझ सुनहरी
दाम गीत के सही चुकाये,
और विश्व की चिन्ता गहरी
तन-मन जो सबके छू जाये !

सादर शार्दुला

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

koun hai aisa jo kisi insan kee keemat laga sakta hai. ham bikte hain sneh kee khatir, sambandho ke nirvahan ke liye. narayan narayan

नीरज गोस्वामी said...

वॄन्दावन के कुंजों में अब वॄन्द नहीं व्यापार उग रहा
आदर्शों के हर मोती को व्यभिचारी हो हंस चुग रहा
होता जब अभिषेक तिमिर का तब ही दीप करें दीवाली
सूरज की अगवानी होती, गया बीतता एक युग रहा
क्या कहूँ...कटु सत्य है ये...अद्भुत रचना...वाह .
नीरज