Wednesday, July 23, 2008

पूजा की थाली तो सजती

पूजा की थाली तो सजती रहती है नित सांझ सकारे
लेकिन श्रद्धा बिना तुम्हारे आशीषों के नहीं जागती

रोली अक्षत फूल धूप का कितना भी अम्बार लगाऊँ
पंचम सुर में नाम तुम्हारा जितना भी चाहे चिल्लाऊँ
एक हाथ में दीप उठाकर दूजे से घन्टी झन्कारूँ
मस्तक पर चन्दन के टीके विविध रूप में नित्य सजाऊँ

किन्तु तुम्हारी कॄपा न हो तो ये सब आडम्बर ही तो है
बिना तुम्हारे इच्छा के विधि अपना लेखा नहीं बाँचती

जो भ्रम है मुझको, मेरा है! मुझे विदित वह कब मेरा है
एक तुम्हारी माया के सम्मोहन ने ही तो घेरा है
जो है वो है नहीं और जो नहीं वही तो सचमुच ही है
यह मंज़िल है कहाँ ? महज दो पल की ही तो ये डेरा है

तेरी चाहत अगर न हो तो कोई योगी भी क्या समझे
तेरे इंगित बिना ज्ञान के सूरज की न किरण जागती

ओ प्राणेश दिशा का अपनी निर्देशन दे मुझको पथ में
दे मुझको भी जगह सूत भर, तू जिसका सारथि उस रथ में
मेरे मन के अंधियारे में बोध दीप को कर दे ज्योतित
कर ले मुझको भी शामिल तू अपने मन के वंशीवट में

तेरे कॄपासिन्धु की लहरें छू लेंगी कब इस मन का तट
लिये प्रार्थना मेरी नजरें रह रह कर बस पंथ ताकतीं.

10 comments:

रंजू भाटिया said...

किन्तु तुम्हारी कॄपा न हो तो ये सब आडम्बर ही तो है
बिना तुम्हारे इच्छा के विधि अपना लेखा नहीं बाँचती

bahut sahi aur sundar pc gadbad hai hindi nahi hai is mein sorry :)

Anonymous said...

तेरे कॄपासिन्धु की लहरें छू लेंगी कब इस मन का तट
लिये प्रार्थना मेरी नजरें रह रह कर बस पंथ ताकतीं.

सचमुच मेरा भी यही कहना है. प्रार्थना के स्वरों में मेरा भी जोड़ लें

Satish Saxena said...

"जो भ्रम है मुझको, मेरा है! मुझे विदित वह कब मेरा है"


आज आपने नया विषय छुआ है ! इस विषय पर कुछ और भी लिखेंगे, इंतज़ार रहेगा !

श्रद्धा जैन said...

bahut hi sunder bhakti purn geet
bahut subhkamanye aapki nayi pustak ke liye bhi

Udan Tashtari said...

तेरे कॄपासिन्धु की लहरें छू लेंगी कब इस मन का तट
लिये प्रार्थना मेरी नजरें रह रह कर बस पंथ ताकतीं.

--वाकई, बेहद उम्दा..अति सुन्दर.

परमजीत सिहँ बाली said...

bahut badhiyaa!

जो भ्रम है मुझको, मेरा है! मुझे विदित वह कब मेरा है
एक तुम्हारी माया के सम्मोहन ने ही तो घेरा है
जो है वो है नहीं और जो नहीं वही तो सचमुच ही है
यह मंज़िल है कहाँ ? महज दो पल की ही तो ये डेरा है

राकेश खंडेलवाल said...

मात शारदा की अनुकम्पा अगर न हो तो संभव कब है
कभी लेखनी एक शब्द भी अपने बूते पर लिख पाये
मैं जो लिखूँ गीत कह कर या, आप टिप्पणी जो लिखते हैं
एक वही भाषा की देवी है जो हम सब से लिखवाये.

सादर

राकेश

नीरज गोस्वामी said...

पूजा की थाली तो सजती रहती है नित सांझ सकारे
लेकिन श्रद्धा बिना तुम्हारे आशीषों के नहीं जागती
एक बार फ़िर राकेश भाई...बेहतरीन रचना...सच को पुख्तगी से बयां करती.
मेरा एक शेर है:
डाल दी भूखे को जिसमें रोटियां
वो समझ पूजा की थाली हो गयी
नीरज

कंचन सिंह चौहान said...

ओ प्राणेश दिशा का अपनी निर्देशन दे मुझको पथ में
दे मुझको भी जगह सूत भर, तू जिसका सारथि उस रथ में
मेरे मन के अंधियारे में बोध दीप को कर दे ज्योतित
कर ले मुझको भी शामिल तू अपने मन के वंशीवट में

तेरे कॄपासिन्धु की लहरें छू लेंगी कब इस मन का तट

kya kahne....! aap ki prashanshaa karu.n bhi to kya
लिये प्रार्थना मेरी नजरें रह रह कर बस पंथ ताकतीं.

Dr.Bhawna Kunwar said...

kaya bat ha rakesh ji kaya khub likha...