Tuesday, November 20, 2007

खो गये चाँदनी रात में

चाँदनी रात के हमसफ़र खो गये चाँदनी रात में
बात करते हुए रह गये, क्या हुआ बात ही बात में

ज़िन्दगी भी तमाशाई है, हम रहे सोचते सिर्फ़ हम
देखती एक मेला रही, हाथ अपना दिये हाथ में

जिनक दावा था वो भूल कर भी न लौटेंगे इस राह पर
याद आई हमारी लगा आज फिर उनको बरसात में

जब सुबह के दिये बुझ गये, और दिन का सफ़र चुक गया
सांझ तन्हाईयां दे गई, उस लम्हे हमको सौगात में

तालिबे इल्म जो कह गये वो न आया समझ में हमें
अपनी तालीम का सिलसिला है बंधा सिर्फ़ जज़्बात में

आइने हैं शिकन दर शिकन, और टूटे मुजस्सम सभी
एक चेहरा सलामत मगर, आज तक अपने ख्यालात में

मेरे अशआर में है निहाँ जो उसे मैं भला क्या कहूँ
नींद में जग में भी वही, है वही ज्ञात अज्ञात में

ये कलांमे सुखन का हुनर पास आके रुका ही नहीं
एक पाला हुआ है भरम, कुच हुनर है मेरे हाथ में

ख्वाहिशे-दाद तो है नहीं, दिल में हसरत मगर एक है
कर सकूँ मैं भी इरशाद कुच, एक दिन आपके साथ में

3 comments:

Mohinder56 said...

राकेश जी

एक और सुन्दर रचना..अचानक बिछडने का गम, तनहाईयों, जज्बातों, शिकवों व ख्वाहिशों का रंग समेटे हुये.. गुनगुनाने से मजा दूना हो जायेगा.

परमजीत सिहँ बाली said...

राकेश जी,बहुत ही बढिया रचना है।बधाई। एक निवेदन है कि आप अपनी रचना में जो उर्दू शब्दों का इस्तमाल करते हैं उन का हिन्दी में अर्थ भी लिख दिया करें..ताकी पाठक आसानी से समझ सकें। जिस से हम जैसे पाठक जो उर्दू ज्यादा नही समझ पाते ,उन्हें सुविधा हो।

ghughutibasuti said...

एक और सुन्दर रचना.। पसन्द आई ।
घुघूती बासूती