Friday, April 6, 2007

जी हाँ मान गये हम भी

शाम को देर से घर आये. अभी चाय का ख्याल भी नहीं आया था कि जगमगाती हुई रोशनी के साथ घरघराहट की आवाज़ बाहर लान से आने लगी. हम कुछ सोचें इसके पहले ही घंटी बजी. दरवाजा खोला, सामने उड़नतश्तरी लान में उतर चुकी थी और स्वामीजी हमारे दरवाजेपर खड़े थे. देखते ही बोले-

हम्म्म्म्म्म्म्म्म. तो तुम गीतकार हो ?

जी- हमने कहा.

सुनो- वे बोले. हमने नये नियम लिखे हैं गीत और कविता के लिये. अब अगर तुन अपने आप को गीतकार कहलवाना चाहते हो तो पहले हमारे बताये हुए सारे नियम, अधिनियम और उपनियमों का पालन करो.

हम असमंजस में थे कि क्या कहें कि वे फिर बोले. देखो जाकर हमारे चिट्ठे पर पढ़ो कि हमने कैसे उन्ही नियमों के तहद कविता लिखी है और अपनी पहचान बनाई है. इतना कह कर वे लौटे और पलक झपकते उड़नतश्तरी ये जा और वो जा.

हमने सोचा कि चलो देखें कि क्या नियम हैं. पढ़े ( आप सब ने भी तो ) और सोचा कि उनके अनुसार प्रयोग करें. उन्होंने लिखा था कि छत पर जाकर सितारे देखें. अब चूंकि हमारे यहाँ छत पर चढ़ पाना असम्भव है तो हम बाहर लान में निकल लिये कि वहीं से सितारे देखेंगे. कुरता पाजामा तो हमारे पास थे नहीं, इसलिये नाईट सूट पहना हुआ था.

बाप रे बाप. बाहर का तापमान ३३ डिग्री फ़हरनहाइट, आसमान पर बादल छाये हुए हलके हल्के गिरती हुई बर्फ़ की फ़ुहियाँ . सारे नियम धरे के धरे रह गये पर साहब कविता फिर भी बनी-

बादलों से घिरा गगन
दिखे नहीं तारे
गिनती ही भूले हम
सर्दी के मारे
झट से जुकाम हुआ
और ऐसा काम हुआ
नाक लाल हो गई
छींकों के मारे

हमें गर्व हुआ कि अब तो हमें स्वामीजी का आशीर्वाद मिल ही जायेगा. हमने सुबह होते ही फोन घुमाया और अपनी " कविता " सुना दी. सुनते ही भड़क उठे-

तुम तो हमारी लुटिया डुबोने पे उतारू हो रहे हो. इस बकवास को कविता कहोगे तो हम एक चौथाइ चुल्लू के सहारे ही पार हो लेंगे. अरे कविता देखनी है तो अरुणिमा की बात पर जाओ, अन्तर्मन का सहारा लो, दिल के दर्म्याँ झांको ,मेरी कठपुतलियों को देखो और मोहिन्दर से सीखो. कलश से घूँट लगाओ. जाओ दोबारा होमवर्क करके लाओ.

साहब , हम भी मरता क्या न करता के अंदाज़ मेम सब जगह भटके और फिर जो असर हमारे ऊपर हुआ शत नमन पढ़ कर, वो आपके सामने पेश कर रहा हूँ. स्वामीजी से पूर्व स्वीकॄति इसलिये नहीं ली कि डर था कहीं वे फिर अपनी त्यौरियाँ नहीं चढ़ा लें ( यह है बतर्ज़- शत शत नमन तुम्हें करता हूँ )

तुम्हें देख कविता से मेरा नाता, कहने में डरता हूँ
शीश झुका कर चुप रहता हूँ

अमारूपिणे ! रूप तुम्हारा है मसान की बुझी राख सा
उलटे पड़े तवे के पैंदे जैसी अद्भुत छवि तुम्हारी
वाणी जैसे चटक रहे हों धान, भाड़ में भड़भूजे के
बरसातों में टपक रहे छप्पर के जैसी याद तुम्हारी

कोयला कहे तुम्हारे रँग के आगे मैं पानी भरता हूँ

फ़िल्मों की ललिता पवार तुम, र्रामायण की तुम्हीं मंथरा
जो पड़ौस से लड़ने को आतुर रहती है वह भटियारी
घातक हो तुम कोयले की खदान में रिसती हुई गैस सी
तुम्हीं पूतना, तुम्हीं ताड़का, तुम खर-दूषण की महतारी

घटाटोपिणी ! नाम तुम्हारा लेने में भी मैं डरता हूँ

तुम ज्यों सहस कोस पर नंगे पांवों में पड़ गई विवाई
जली आग पर पड़ते जल से उठते धुँए की अँगड़ाई
तुम हो रश आवर के ट्रैफ़िक में जो बढ़ती आपाधापी
तुम्हें देख पावस की काली अँधियरी रातें शरमाईं

शब्द कोश में शब्द न मिलते कितनी मैं कोशिश करता हूँ
बस मैं नमन तुम्हें करता हूँ.


अब क्योंकि यह सब कुछ स्वामीजी के आदेश पर लिखा गया है तो आपको खुली छूट है , चाहे तो इसे अन्यथा लें या न लें. अन्यथा लें तो स्वामीजी को पकड़ लें और उन्हें भुगतान कर दें. हम तो अब निकलते हैं

6 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत खूब राकेश भाई. यह धार भी सही चल निकली. मजा आ गया. क्या बात है!!

-बधाई!

अब आपका जुकाम ठीक हो जाये, तब बात करते है. :)

Pramendra Pratap Singh said...

वाह गीतकार भाई क्‍या लिखा है।

मजा आ गया

Anonymous said...

गीतकार की कलम ना रुकती
दिनभर स्याही भरता रहता हूँ
नाता इनका, स्पष्ट सामने
पर लिखते-कहते मैं डरता हूँ

माथे पे चंदा रखकर वे, जब,
पीताम्बरी ओढ़े आती थीं
सज-कर धज-कर, आह! शत-रूपा
पनघट पर इनके गाती थीं
वाशिंगटन के सूने बीहड़ मे
फिर भी इनने केष संवारे
श्रंगार रूपसी कहाँ करोगी
कहकर यों सम्बोधन मारे!

नाम धरें क्यों आज लंकनीं!
असमन्जस में भोला रहता हूँ
नाता इनका, स्पष्ट सामने
पर लिखते-कहते मैं डरता हूँ


रिपुदमन पचौरी !

अनूप शुक्ल said...

हां हम भी मान गये। आप समीरजी को माने हम आपको। अब चेन पूरी हो गयी! :)

Anonymous said...

अमारूपिणे, घटाटोपिणी
वाह क्या उपमाएँ हैं!

Mohinder56 said...

राकेश जी,
आप की लेखनी व विचार विस्तार का लोहा मानना पडेगा...आप खाल में से बाल और फिर बाल की खाल भी निकाल लेते हैं... यूंहीँ लिखते रहिये हम पढ कर आन्नद लेते रहेँगेँ