इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.
मुक्तक महोत्सव
मन के कागज़ पे बिखरे जो सीमाओं में,रंग न थे, मगर रंग थे आपके
बनके धड़कन जो सीने में बसते रहे,मीत शायद वे पदचिन्ह थे आपके
जो हैं आवारा भटके निकल गेह से आँसुओं की तरह वो मेरे ख्याल थे
और रंगते रहे रात दिन जो मुझे, कुछ नहीं और बस रंग थे आपके
देख पाया है जिनको ज़माना नहीं. रंग थे मीत वे बस तुम्हारे लिये
रंग क्या मेरे तन मन का कण कण बना मेरे सर्वेश केवल तुम्हारे लिये
सारे रंगों को आओ मिलायें, उगे प्रीत के जगमगाती हुई रोशनी
रंग फिर आयेंगे द्वार पर चल स्वयं, रंग ले साथ में बस तुम्हारे लिये
आपके आगमन की प्रतीक्षा लिये, चान्दनी बन के शबनम टपकती रही
रात की ओढ़नी जुगनुओं से भरी दॄष्टि के नभ पे रह रह चमकती रही
मेरे आँगन के पीपल पे बैठे हुए, गुनगुनाती रही एक कजरी हवा
नींद पाजेब बाँधे हुए स्वप्न की, मेरे सिरहाने आकर मचलती रही
मेरी अँगनाई में मुस्कुराने लगे, वे सितारे जो अब तक रहे दूर के
दूज के ईद के, चौदहवीं के सभी चाँद थे अंश बस आपके नूर के
ज़िन्दगी रागिनी की कलाई पकड़, एक मल्हार को गुनगुनाने लगी
आपकी उंगलियाँ छेड़ने लग पड़ीं तार जब से मेरे दिल के सन्तूर के.
आप की याद आई मुझे इस तरह जैसे शबनम हो फूलों पे गिरने लगी
मन में बजती हुई जलतरंगों पे ज्यों एक कागज़ की कश्ती हो तिरने लगी
चैत की मखमली धूप को चूमने, कोई आवारा सी बदली चली आई हो
याकि अंगड़ाई लेती हुइ इक कली, गंधस्नात: हो कर निखरने लगी
3 comments:
सारा मैखाना ही मांगे है मेरी तिष्ना लबी
एक दो जाम पे लिल्हा ना टालो मुझको...
और चाहिये, और चाहिये...इतने से काम नही चलेगा.... दिलकश है आप के मुक्तक
बहुत उम्दा मुक्तक हैं, जारी रहें. महोत्सव सदा चलता रहे.
राकेश जी,
सब मुक्तक अच्छे हैं, खासतौर पर पहला और आखिरी. बहुत सुन्दर
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