Wednesday, February 21, 2007

ये खलिश कहाँ से होती

चिट्ठाकारिता में आजकल एक तूफ़ान सा आया हुआ है. जिसे देखो वही अपना रोजनामचा खोल कर बैठा हुआ है. क्या, क्यों , कहाँ कैसे, किसने, कब, किसलिये जैसे ढेर सारे कंकर लगा है शान्त झील में डाल दिये गये हैं और लहरें उठ उठ कर सबको सराबोर किये दे रही हैं. अब हम शिकायत तो करेंगे ही. भाई लोगों ने एक दूसरे को टेग कर लिया और ऐसे किया कि अंधा बाँटे जैसे रेवड़ी. अरे भाई लोगो- हम भी इधर खड़े हैं लाईन में और गूँज रहा है

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता


अब खलिश तो हो ही रही है. किसी के टग का तीर अभी नीम कश हुआ ही नहीं, वरना हम बताते कि मियाँ हमसे पूछो अपने सवाल. खुदा कसम ऐसे जवाब देंगे कि दोबारा सवालों से तौबा करके आप जवाब पहले दे दोगे जैपर्डी की तरह और गुजारिश करोगे हुज़ूर जब वक्त मिले तो एकाद सवाल इधर हमारी ओर उछाल दो. हालांकि प्रत्यक्षा के सांभा ने सुन भी लिया थी कि बहुत नाइंसाफ़ी है ये. पर फिर भी.... और तो और ऐसी आपाधापी मच रही है कि जिसे देखो वही घूम फिर कर बेचारे समीर भाई को टग किये जा रहा है और वे बेचारे पशोपेश में पड़े हैं

इस दिल से प्रश्न हजार हुए, अब किस किसको मैं उत्तर दूँ
मैं सोच रहा हूँ बेहतर है अब चुप ही होकर मैं रह लूँ

खैर छोड़िये, भुगतने दीजिये महारथियों को अपने अपने सवालों से. हम अपनी अप्र आते हैं. चिट्ठा चर्चा में समीरजी ने लिखा कि कविताओं की संख्या बढ़ रही है (और साथ साथ ही कविता न समझने वालों की भी ). बहरहाल जो भी हो, थोड़ी बहुत कविता हम भी समझने लगे हैं ( जीतू भाई की तरह ) और इस तरह हर कविता को अपने अनुसार समझते हैं. अब जैसे कल गीत कलश पर कविता थी चाँदनी रात के . हमने पढ़ा और समझा भी फिर सोचा कि जो हमने समझा है आपको भी बता दें, तो असल कविता तो यह थी :-
कोशिशें कितनी कीं ,थक चुके पर कहाँ
मानते बात हैं भूत जो लात के

इसलियेये चढ़े थे गधे पर नहीं
वक्त आने पे उसको बनाया पिता
काम पूरा हुआ फिर किसे पूछना
अपनी परछाईं को भी बताया धता
गिरगिटों के ये शागिर्द हैं मतलबी
रेत की एक नदिया से हैं मौसमी
इनके क्या क्या विशेषण हैं क्या क्या कहें
इनको कुछ भी कहो, ये नहीं आदमी

रात दिन शह पे शह उए लगाते रहे
वैसे मोहरे हैं ये पिट चुके मात से

खोटे सिक्के से ज्यादा भरा खोट है
पर कहें खुद को हैं टंच सौ ये खरे
इनका विस्तार इतना बढ़ा इसलिये
क्योंकि बैलून हैं ये हवा से भरे
ये दिवाली के टेसू हैं, बाकी बरस
तान चादर अँधेरे की सोते रहे
कट चुकी जब फ़सल, तब उठे नींद से
बात की बारिशों से भिगोते रहे

पेड़ की फ़ुनगियों सी लिये ख्वाहिशें
हैं ये अवशेष पर झर चुके पात के

अब ये सब बैठे ठाले की चीज हैं. अगर आप अन्यथा लेना चाहें तो लें हमें कोई ऐतराज नहीं है

2 comments:

Udan Tashtari said...

क्या भाई साहब, गीत छोड़कर आप भी इस मौहल्ले में. बढ़िया रहा आगमन, बहुत स्वागत. :)
बढ़िया खींचा गया है, लेख के पीछे छिपे भाव चीख चीख कर अपने होने का पता दे रहे हैं, बहुत खुब:

इनका विस्तार इतना बढ़ा इसलिये
क्योंकि बैलून हैं ये हवा से भरे
ये दिवाली के टेसू हैं, बाकी बरस
तान चादर अँधेरे की सोते रहे
कट चुकी जब फ़सल, तब उठे नींद से
बात की बारिशों से भिगोते रहे

क्या बात है.
बधाई

Pratyaksha said...

बैठे ठाले इतना कुछ लिख दिया :-) मज़ा आ गया । समीर जी मछलियाँ फ्राई करवा रहे हैं , आपके भी तले जाने की बारी आयेगी ।