फिर नया वर्ष आकर खड़ा द्वार पर,
फिर अपेक्षित है शुभकामना मैं करूँ
मांग कर ईश से रंग आशीष के
आपके पंथ की अल्पना मेम भरूँ
फिर दिवास्वप्न के फूल गुलदान में
भर रखूँ, आपकी भोर की मेज पर
न हो बाती, नहीं हो भले तेल भी,
कक्ष में दीप पर आपके मैं धरूँ
फिर ये आशा करूँ जो है विधि का लिखा
एक शुभकामना से बदलने लगे
खंडहरों सी पड़ी जो हुई ज़िन्दगी
ताजमहली इमारत में ढलने लगे
तार से वस्त्र के जो बिखरते हुए
तागे हैं, एक क्रम में बंधें वे सभी
झाड़ियों में करीलों की अटका दिवस
मोरपंखी बने और महकने लगे
गर ये संभव है तो मैम हर इक कामना
जो किताबों में मिलती, पुन: कर रहा
कल्पना के क्षितिज अर उमड़ती हुई
रोशनी मेम नया रंग हूँ भर रहा
आपको ज़िन्दगी का अभीप्शित मिले
आपने जिसका देखा कभी स्वप्न हो
आपकी राह उन मोतियों से सजे
भोर की दूब पर जो गगन धर रहा.
1 comment:
बहुत सुँदर कविता 'गीतकार' जी। लेकिन आप ने अपना परिचय नहीं दिया। जहाँ तक मेरा अनुभव है कि अज्ञात ब्लॉगरों से हम सब अच्छी तरह नहीं जुड़ पाते। दूसरी बात स्पैमिंग की समस्या भी प्रभु-कृपा से हिन्दी-चिट्ठाजगत में अभी तक न्यूनतम है।
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