Monday, December 18, 2006

बीती हुई बहार के

खुली आँख से मैने देखे जब जब सपने प्यार के
पलकों पर आ बैठ गये दिन बीती हुई बहार के

पांखुर बनती फूल, फूल फिर कलियों में ढल जाता है
धुन में सजा बांसुरी-स्वर फिर अधरों पर आ जाता है
फिर उछाल लेती कालिन्दी, बढ़ कर पग नख को छूले
डाल नीम की, अमरलता के डाला करती है झूले

आते द्वार मधुप सन्देसे लेकर ॠतु-संहार के
पलकों पर उगने लगते हैं दिन, जा चुकी बहार के

आलावों से उठ कर बाली लगे मेंड़ से बतियाने
गोरा -बादल गाने लगते आल्हा-ऊदल के गाने
लंगड़ा हापुस, अमराई मे दें कोयल को आवाज़ें
साध मयूरी ले कर नभ पर बादल आ छम छम नाचें

रंगें केतकी के रंग बूटे शर्मीली कचनार के
खुली आँख से मैने देखे जब जब सपने प्यार के

शपथ साथ की तरल, आंजुरि फिर से कर जाती गीली
महके सरसों के फूलों सी छाप हथेली की पीली
उड़ती चूनर ले अलगोजे, थाप चंग पर दे जाते
छेड़ा करती है कंगन को सारंगी आते जाते

मांझी गीतों के स्वर आते हैं नदिया के पार से
पलकों पर उगने लगते पल बीती हुई बहार के

1 comment:

जयप्रकाश मानस said...

फोंट शायद गलती से बड़ा और बोल्ड हो गया है । इससे पाठक को थोडी बारियत होती है । जबकि रचना सरस और पठनीयता से भरपुर है । बधाई
Editor-www.srijangatha.com