हो शरद की पूर्णिमा का, दूज का हो ईद का हो
सेज पर निशि के गगन की चाँद सपना देखता है
देखर है स्वप्न छू कर कान्ति काया की तुम्हारी
और निखरी ज्योत्स्नाएं गंध में भीगी हुई सी
, कामना लेकर असीमित्नित्य दुगुनी होरही जो
भोर की उगते किरण के संग में जैसी फलित सी
, कामना लेकर असीमित्नित्य दुगुनी होरही जो
भोर की उगते किरण के संग में जैसी फलित सी
स्वप्न उसका नीड तट पर आन बंसी टेरता है
सेज पर निशि के गगन की चाँद सपना देखता है
स्वप्नमें भी स्वप्न उसका अन श लेकर रूप तुमसे,
हो गया है मेनका के हाथ की वह आरसी सा
और है वह झील जिसमें बन रहा प्रतिबिम्ब जैसे
और है वह झील जिसमें बन रहा प्रतिबिम्ब जैसे
सद्यस्नाता अति मनोहर रूप वाली उर्वशॆ का
आस की सारंगियाँ ले तान मधुरिम छेड़ता है
सेज पर निशि के गगन की चाँद सपना देखता है
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