लाल पीली चूनरी ओढ़े हुए शाखायें हँसतीं
ये सितम्बर मास जाने के लिये सामान बाँधे
साझ के पल ग्रीष्म में फ़ैले हुए थे धूप खाकर
ओढ़ने अब लग गये तन पर सलेटी शाल सादे
तापक्रम सीढ़ी उतरता आ रहा वापिस धरा पर
लग गयीं बहने हवा में कुछ अजानी सी तरंगें
खिड़कियों पर भोर की आ बैठता झीना कुहासा
सूर्य आंखों को मसलते ले रहा रह रह उबासी
रात की अंगनाईयों में दीप से जल कर सितारे
भूमिका लिखने लगे आये शरद की पूर्णमासी
एक सिहरन सी लगी है दौड़ने हर इक शिरा में
ले रही अंगड़ाईयां मन में उमग अनगिन उमंगें
पाखियों ने दूत भेजे हैं पुन: दक्षिण दिशा में
नेघ फ़सलें ला रहे सँग में कपासी ओटने को
ऊन के गोले सुलझ कर टँक गये फिर अलगनी पर
और बन पटुआ दिवस किरणें बटोरे पोटने को
घाटियों से लौट कर आती हुई आवाज़ कोई
उड़ रही आकाश पर मन के बनी पीली पतंगें
गीतकार
२७ सितम्बर २०१०
3 comments:
वाह! आनन्द आ गया गीतकार जी. :)
सुन्दर गीत के लिये बधाई।
ऋतु परिवर्तन का इतना मोहक वर्णन... बार-बार पढ़ने का मन होता है..बढ़िया गीत...बधाई राकेश जी
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