Friday, February 5, 2010

आपका फिर व्यर्थ है कहना लिखूँ मैं गीत कोई

शब्द से होता नहीं है अब समन्वय भावना का


रागिनी फिर गुनगुनाये, है न संभव गीत कोई



खो चुकी है मुस्कुराहट, पथ अधर की वीथिका का

नैन नभ से सावनी बादल विदा लेते नहीं हैं

कंठ से डाले हुए हैं सात फ़ेरे सिसकियों ने

पल दिवस के एक क्षण विश्रांति का देते नहीं है



टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर

बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई



हो गईं वर्तुल सभी रेखायें हाथों में खिंची जो

लौट क आईं वहीं पर थीं चलीं इक दिन जहाँ से

ज़िन्दगी के पंथ की सारी दिशायें दिग्भ्रमित हैं

है अनिश्चित जायेंगी किस ओर आईं हैं कहाँ से



दीप सब अनुभूतियों के टिमटिमा कर बुझ रहे हैं

आस सूनी, इक शलभ को कर सकेगी मीत, खोई



डँस गया है स्वप्न के वटवॄक्ष, फ़न फैलाये पतझर

दॄष्टि के नभ पर उगे हैं सैंकड़ों वन कीकरों के

बुझ गईं सुलगी प्रतीक्षा की सभी चिंगारियाँ भी

चिन्ह पांवों के न बनते पंथ बिखरे ठीकरों पे



धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है

और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई

8 comments:

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर भावमय रचना धन्यवाद्

विनोद कुमार पांडेय said...

geet n likhane ki baat kah kar bhi ek behtareen rachana prstut kiye..rakesh ji bahut badhiya lagi aapki yah prstuti..

Udan Tashtari said...

बेहतरीन रचना के साथ ब्लॉग का रंग रुप बदला हुआ नजर आ रहा है...क्या बात है. :)

Randhir Singh Suman said...

धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है

और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई .nice

Parul kanani said...

bahut sundar!

Anonymous said...

no!

Shar said...

रिक्त गगरी, वर्तुल रेखायें, शुश्क कालिन्दी !!

Shardula said...

ये बहुत ही दुखदायी कविता!
शीर्षक से लगता है कि किसी ने आपसे गीत लिखने को कहा होगा ... तो आप यह लिख के दे रहे हैं !!
कितनी गलत बात है !!
"खो चुकी है मुस्कुराहट, पथ अधर की वीथिका का
नैन नभ से सावनी बादल विदा लेते नहीं हैं
कंठ से डाले हुए हैं सात फ़ेरे सिसकियों ने
पल दिवस के एक क्षण विश्रांति का देते नहीं है"
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इन चार पंक्तियों के कारण, इतने दिनों तक विस्तृत टिप्पणी नहीं की इस गीत पे... पहले समझूं तो सही कि क्या होता है इनका सही अर्थ..."
"टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर
बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई
धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है
और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई"
बहुत ही दर्द भरी पंक्तियाँ हैं.
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"हो गईं वर्तुल सभी रेखायें हाथों में खिंची जो
लौट के आईं वहीं पर, थीं चलीं इक दिन जहाँ से"
यहाँ वर्तुल रेखाओं का बिम्ब, हे राम! ऐसा साथ चला कि कई बार अपना हाथ देखा कि कहीं कोई मेरी रेखा भी तो वर्तुल नहीं हो रही!!
शायद यह इसलिए भी साथ रहा क्योंकि 'वर्तुल' का अर्थ देखना पड़ा नेट पे !
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अब गंगा--जमुना के आगे अपने टिप्पणी के भाव की नहर क्या रखूं, चलो थोड़ा मुस्कुरा ही लें:-
कभी कभी मुझे लगता है गुरुजी आपने पी.एच.डी. की है अच्छे मौके पे रुलाने वाले गीत लिखने में :))
Mid फरवरी भी भला कोई समय है ऐसे गीतों के लिए... very bad!! :) :)

इस गीत की यह पंक्ति "टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर; बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई"
और आपकी 'ओ प्रवासी' की पंक्ति "ज़िंदगी की इस चकई का खींचता है कौन धागा, कौन दे सन्देश छत पे भेजता है रोज़ कागा"
इन दोनों के बीच दर्द भरे गीतों की गीतमाला के प्रथम पायदान पे आने के लिए भयंकर युद्ध हो रहा है ... नतीजा मिलते ही प्रेषित किया जायेगा :)
सादर . . . :)