परिणति, जलते हुए तवे पर गिरी हुई पानी की बूँदे
मन की आशा जब यथार्थ की धरती से आकर टकराये
अपने टूटे सपनों की अर्थी अपने कांधे पर ढोते
एकाकीपन के श्मशानों तक रोजाना ले जाते हैं
चुनते रहते हैं पंखुरियां मुरझा गिरे हुए फूलों की
जो डाली पर अंगड़ाई लेने से पहले झर जाते हैं
पथ की धूल निगल जाती है पदचिह्नों के अवशेषों को
सशोपंज में यायावर है, दिशाज्ञान अब कैसे पाये
सजी नहीं है पाथेयों की गठरी कब से उगी भोर में
संध्या ने दरवाज़ा खोला नहीं नीड़ जो कोई बनता
संकल्पों को लगीं ठोकरें देती नहीं दिलासा कोई
उमड़े हुए सिन्धु में बाकी नहीं कहीं पर कोई तिनका
बिखर गये मस्तूल, लहर ने हथिया लीं पतवारें सारी
टूटी हुई नाव सागर में, कब तक और थपेड़े खाये
शूल बीनते छिली हथेली में कोई भी रेख न बाकी
किस्मत के चौघड़िये मे से धुल बह गये लिखे सब अक्षर
बदल गई नक्षत्रों की गति, तारे सभी धुंध में लिपटे
सूरज निकला नहीं दुबारा गया सांझ जो अपने घर पर
अधरों के स्वर सोख लिये हैं विद्रोही शब्दों ने सारे
सन्नाटे की सरगम लेकर गीत कोई कैसे गा पाये
सने अभ्यागत बनकर अब आते नहीं नयन के द्वारे
खामशी का पर्वत बनकर बाधा खड़ा हुआ आंगन में
अभिलाषा का पथ बुहारते क्षत विक्षत होती हैं साधें
मन मरुथल है, बादल कोई उमड़ नहीं पाता सावन में
पतझर बन कर राज कुंवर, सता ले बैठा सिंहासन पर
संभव नहीं अंकुरित कोई अब मुस्कान कभी हो पाये
6 comments:
अधरों के स्वर सोख लिये हैं विद्रोही शब्दों ने सारे
सन्नाटे की सरगम लेकर गीत कोई कैसे गा पाये
--बहुत उम्दा गीत...आनन्द आ गया पढ़कर..बधाई!!
बहुत सुन्दर !
अलंकृत गीत !
अधरों के स्वर सोख लिये हैं विद्रोही शब्दों ने सारे
सन्नाटे की सरगम लेकर गीत कोई कैसे गा पाये
बहुत सुन्दर गीत है। आपकी हर रचना दिल को छू जाती है। आभार
लाजवाब शब्द और भाव दोनों बेहतरीन है..खूबसूरत रचना ..धन्यवाद राकेश जी
सादर नमन
बहुत-बहुत सुन्दर !
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