Monday, November 2, 2009

एक तुम्हारा वॄन्दावन

अभिलाषा का दीप जला कर खड़ा हुआ हूँ द्वारे पर
अपनी करुणा के पारस से छू मुझको कर दो कंचन

जीवन की आपाधापी में भूल गया अपने को भी
लेकिन यह मेरी गति तुमसे आखिर कब है अनजानी
कर्म प्रकाशित मेरे जितने हैं बस ज्योति तुम्ही से पा
व्यथा हदय की तुमसे, तुमसे ही आंखों का है पानी

करता हूँ करबद्ध प्रार्थना बीन दया की छेड़ो तुम
भक्ति भाव की गूँजे मेरे प्राणों में जिससे सरगम

मन के आईने में दिख पाता है केवल धुंधलापन
सीमित है द्वारे तक मेरी नजरों की ये बीनाई
आओ बनकर ज्योति दिशा दो भ्रमित हुए पागल मन को
सारथि बन कर जैसे तुमने दिशा पार्थ को दिखलाई

फिर से फ़ूंको प्राण, प्राण की सोई हुई बाँसुरी में
गूँज उठे मीठी मोहक तानों से ये मन का आँगन

तुम्हें ज्ञात तुम ही भ्रम देते तुम्हीं ज्ञान सिखलाते हो
बिना तुम्हारे इंगित के मैं चलूँ एक भी पग ,मुश्किल
तुम ही गुरु हो, सखा तुम्ही हो और तुम्ही हो प्राणेश्वर
है विशालता नभ की तुम में, और सूक्ष्म तुम जैसे तिल

मुझको अपने विस्तारों के अंश मात्र में आज रखो
रोम रोम में आकर बस ले एक तुम्हारा वॄन्दावन

8 comments:

Shar said...

:)

M VERMA said...

फिर से फ़ूंको प्राण, प्राण की सोई हुई बाँसुरी में
गूँज उठे मीठी मोहक तानों से ये मन का आँगन
बहुत सुन्दर गीत्

Randhir Singh Suman said...

फिर से फ़ूंको प्राण, प्राण की सोई हुई बाँसुरी में
गूँज उठे मीठी मोहक तानों से ये मन का आँगन.nice

विनोद कुमार पांडेय said...

Bahut Sundar geet...

नीरज गोस्वामी said...

अहहहहहः.......अद्भुत आनंद...क्या लिखते हैं आप....वाह....नमन आपको...
नीरज

दीपक 'मशाल' said...

ek bahut hi lajwab geet ke srijan ke liye badhai aapko....
Jai Hind..

Shardula said...

गीतांजलि की खुशबू है इसमें!

Shardula said...

कल जब कहा था कि गीतांजलि की खुशबू है इस गीत में तब से गुरुदेव रवीन्द्र का ये गीत मन में था, एक अंश आप भी सुनिए:
"तुम जब कहते मुझ से, गीत सुनाओ
उठती छाती फूल गर्व से भर कर,
छल-छल हो आती अपनी दो आँखें
ठहर निमेष विहीन तुम्हारे मुख पर!

कठिन और कटु जो भी है प्राणों में
गला चाहते अमृतमय गानों में
मेरी सब साधना आराधन मेरे
उड़ा चाहते विहगों-से फैला पर .... "
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गीतांजलि से ही एक और सुनिए. . .
"मेरे गीतों ने सब अपने
गहने दिए उतार,
नहीं तुम्हारे निकट गर्व का
कुछ रक्खा श्रृंगार"
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और ये भी . . .
"मुझ से गीत गवाए तुम ने
कितने छल से
खिला-खिला सुख-खेल
रुला कर आंसू जल से.
हाथ लगे फिर हाथ ना आये
पास पहुँच कर छिटक पराये
सतत व्यथा से भर-भर लाये
अन्तस्थल हे!
गीत गवाए ऐसे जाने
कितने छल से!"
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. . .हैं ना परम सुन्दर! ऐसा ही सुन्दर आपका गीत भी है! सोच रही हूँ कि आपका यह गीत और भी गीत जो आलौकिक चेतना को संबोधित करते हैं (जैसे, "मेरा और तुम्हारा परिचय") उन्हें आप अलग से एक संकलन में रखिये ना! वह किताब फिर माँ को भेंट करूँगी.