ओ अनुरागी तुझे भेंट मे मैं क्या दूँ, तू ही है दाता
तेरे सिवा विश्च में जो भी प्राणी है, वो है इक याचक
तेरी अनुकम्पा की बारिश से जब भीगा मेरा आँचल
सुधा कलश बन गई हाथ में जो थी मेरे जल की छागल
दीपित हुईं दिशायें मेरी जिनपर परत जमी थी काली
तेरे आशीषों से मेरी हर मावस बन गई दिवाली
है बस इक ये ही अभिलाषा ओ मेरे प्राणेश ! सदा ही
तू आराध्य रहे नित मेरा ,और रहूँ मैं बन आराधक
जब जब तेरे अनुदानों की महिमा गाये मेरी वाणी
स्वत: झरा करती है तब तब होठों से कविता कल्याण
तू ही भाव और स्वर तू ही, तू ही तो है संवरा अक्षर
तू ही मन की अनुभूति है, तू ही अभिव्यक्ति का निर्झर
तेरे वरद हस्त की छाया रहती है जिसके मस्तक प
साहस नहीं किसी का उसके पथ में आये बन कर बाधक
तरे इंगित से जलती है ज्योति ज्ञान की अज्ञानों में
तेरी दॄष्टि बदल देती है विपदाओं को मुस्कानों में
तेरी इच्छा बिना न होती जग में कोई हलचल संभव
सांस सांस में व्याप्त रहा है मेरी बस तेरा ही अनुभव
तेरे दरवाजे पर आकर भिक्षा एक यही मैं माँगूं
धड़कन रहे ह्रदय की मेरे बनकर बस तेरी ही साधक.
5 comments:
शुभ भाव-युक्त सुन्दर प्रार्थना ! आभार ।
ye bhi behtareen ...dhanywaad rakesh ji
जब जब तेरे अनुदानों की महिमा गाये मेरी वाणी
स्वत: झरा करती है तब तब होठों से कविता कल्याणी
Sadar Naman!
"तुझे भेंट में क्या दूँ "... नया गीत दीजिये अब तो कविराज...एक पखवाड़े से इस धाम पे नई अल्पना नहीं पुरी.
sunder geet ke liye aabhaar. kahin maange , kahin milta hai :)
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