क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है
उड़ती हुई कल्पनाओं ने देखा नहीं क्षितिज पर कोई
चित्र, स्वप्न बन कर वह लेकिन आंखों में आ छा जाता है
देहरी पर आकर रुक जाती है जब गोधूली की बेला
तब सहसा ही हो जाता है भावुक मन कुछ और अकेला
परिचय के विस्तारित नभ में दिखता नहीं सितारा कोई
लेकिन मन में लग जाता है अनचीन्ही सुधियों का मेला
एक अपरिचित सुर सहसा ही अपना सा, चिर परिचित होकर
कोई भूला हुआ गीत आ फिर से याद दिला जाता है
क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है
दूरी के प्रतिमान सिमट कररह जाते हैं एक सूत भर
सब कुछ जैसे कह जाते हैं अधrरों के हो मौन रहे स्वर,
बैठा करते भावुकता के पाखी आ मन की शाखों पर.
तब संकल्प ह्रदय के जाते हैं उठती झंझा में बह कर
आंखों के आगे आकर के धुंआ कोई आकार बनाता
लगता है तुम हो, सहसा ही मन आनंदित हो जाता है
क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है
रंग नहीं भर पाती कूची, रही अधूरी रेखाओं में
अनभेजे संदेसे घुल कर रह जाते सारे दिशाओं में
माना तुम हो दूर मगर यों पैठ गये गहरे अंतर में
अपना चित्र तलाशा करता मन, इतिहासिक गाथाओं में
लगता स्पर्श तुम्हारा है वह पंख एक झरता अम्बर से
और अचानक चातक सा मन नीर तॄप्ति का पा जाता है
क्या बतलाऊँ कितना रोका है मैने अपना पागल मन
लेकिन होठों पर रह रह कर नाम तुम्हारा आ जाता है
8 comments:
गीतकार की कलम को
मन से नमन।
बहुत आनंद आया
पर आपसे सुनकर
तो परमानंद आता है।
राकेश भाईसाहब,अविनाश जी ने बिलकुल सही लिखा है, यदि आप इसे सुनाते तो वाकई मज़ा दुगुना हो जाता। बहुत समय से पढ़ नही पाई थी।
आशा करती हूँ आप सकुशल होंगे|
सादर नमस्कार
सुनीता
BHAIYA.........SIDHE BOLE TO AAPKO PYAAR HO GAYA HAI OUR USAME GAHARE DUBA BHI GAYE HO .........JISAKE WAJAH SE KAWITA KO ITANE SUNDAR BHAW OUR SHABDA MILE HAI KI ........KAWITA APANE PADH LI GAYEE............ATISUNDAR
राकेश जी आपको हमेशा पढता हूँ और आपकी लेखन क्षमता को नमन करता हूँ...आप विलक्षण कवि है...सच कहूँ मुझे आप जैसा कवि कोई दूसरा नज़र नहीं आता...इश्वर से प्रार्थना है की आपकी लेखनी को सदा जवान रक्खे...
नीरज
वाह भाई जी, बहुत अद्भुत अभिव्यक्ति. हमेशा की ही तरह!
यह तो पढने से अधिक गुनगुनाने के लिए है। बहुत बहुत सुन्दर!
घुघुती बासूती
देहरी पर आकर रुक जाती है जब गोधूली की बेला
तब सहसा ही हो जाता है भावुक मन कुछ और अकेला
परिचय के विस्तारित नभ में दिखता नहीं सितारा कोई
लेकिन मन में लग जाता है अनचीन्ही सुधियों का मेला
एक अपरिचित सुर सहसा ही अपना सा, चिर परिचित होकर
कोई भूला हुआ गीत आ फिर से याद दिला जाता है
!!!
माना तुम हो दूर मगर यों पैठ गये गहरे अंतर में
अपना चित्र तलाशा करता मन, इतिहासिक गाथाओं में
लगता स्पर्श तुम्हारा है वह पंख एक झरता अम्बर से
और अचानक चातक सा मन नीर तॄप्ति का पा जाता है
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