पीर के पन्ने पिचहत्तर सांत्वना के शब्द सत्रह
एक यह अनुपात लेकर चल रही है ज़िन्दगानी
जागती है भोर की पहली किरण की दस्तकों से
और चढ़ती धूप के संग पीर की चढ़ती जवानी
सांझ को ढलती हुई यह देख कर, ज्यादा निखरती
रात में यों महकती है, जिस तरह से रात रानी
एक यह थी कल, यही है आज, होगी कल सुनिश्चित
रोज ही दुहराई जाती बस इसी की तो कहानी
उंगलियों का स्पर्श हो या पांव का हो चिन्ह कोई
खिल उठे है झूम कलियों की मधुर मुस्कान जैसे
और रिसती है सपन की संधि की बारीकियों से
गूँजती तन में, वनों में बांसुरी की तान जैसी
ओस की पी ताजगी चिर यौवना हो कर खड़ी है
करवटों से जुड़ पलों की और हो जाती सुहानी
सांत्वना के हर निमिष का पान कर लेती ठठा कर
छोड़ती अधिपत्य अपना धड़कनों पर से नहीं ये
है सभी भंगुर धरा पर किन्तु शाश्वत बस यही है
सर्जना के आदि से लेकर अभी तक है यहीं ये
बोलता इतिहास जीवन का महज इसकी कहाअनी
हो कोई संदर्भ नूतन, याकि हो गाथा पुरानी
5 comments:
पीर मन की ...
http://geetkalash.blogspot.com/2008/11/blog-post_25.html
AAP JAISE BISHISHTH AUR GUNI KE LIYE MAIN KYA KAHUN..KOI SHABD DHUNDHANE SE NAHI MILTA... AAPKO TATHA AAPKE LEKHANI KO SALAAM...
ARSH
आपकी रचनाओं को तो बस मौन हो पढना है और निःशब्द हो जाना है....
दिन सार्थक हुआ...आभार.
इतने सुन्दर और दार्शनिक गीत पे टिप्पणी देने योग्य भी नहीं समझती मैं खुद को! याद सा हो गया है. बहुत गंभीर बात, बहुत सौन्दर्य और पीर समेटे है यह गीत !
रचना को नमन !
कविता की पीर, दार्शनिकता के समक्ष मेरा पुनः नमन !
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