Tuesday, March 3, 2009

रोशनी गुनगुनाने लगी

रोशनी गुनगुनाने लगी
चाँदनी के मचलते हुए साज पर रोशनी गुनगुनाने लगी
रात भर जो कमल पत्र पर था लिखा
इक सितारे ने गंधों भरी ओस से
भोर वह गीत गाने लगी

जुगनुओं की चमक से गले मिल गई
गंध महकी हुई एक निशिगंध की
बादलों ने पकड़ चाँद की उंगलियाँ
याद फिर से दिलाई है सौगंध की
एक झोंका भटकता हुआ फ़ागुनी
थाम कर खिड़कियों को वहीं रुक गया
प्रीत के हाथ मेंहदी रचे देखने
और नीचे उतर कर गगन झुक गया

इक कली खिलखिलाने लगी
संधिवय पार कर उम्र की पालकी
पग को आगे बढ़ाने लगी
इक कली खिलखिलाने लगी

स्वाति के मेघ ने मुस्कुराते हुए
एक उपहार नव, सीपियों को दिया
चाँदनी से पिघल कर सुधा जो बही
ओक भर भर उसे प्यास ने पी लिया
उष्णता दीप की बन के पारस हँसी
देह तपता हुआ स्वर्ण करते हुए
तान पर मुरल्यों की शिरायें थिरक
झूमने लग गईं रास करते हुए

पेंजनी झनझनाने लगी
पाई झंकार तट से तरंगो ने जब
राग नूतन बजाने लगीं
पेंजनी झनझनाने लगी


एक कंदील थक ले उबासी रहा
अलगनी पे समय किन्तु ठहरा रहा
थरथराती हुई पंखुरी का परस
रात के होंठ पर और गहरा रहा
एक बिखरा हुआ जोकि बिखराव था
वो न सिमटा थकी कोशिशें रश्मि की
और विस्तार अपना बढ़ाती रही
एक मीठी तपन शीत सी अग्नि की


चाँदनी डूब जाने लगी
रात भर की जगी, बोझिलें ले पलक
और भी कसमसाने लगी

6 comments:

रंजू भाटिया said...

इसको पढ़ कर खमोशियाँ गुनगुनाने लगीं ..गाना याद आ गया .इस अच्छा गीत लिखा है आपने .

Shardula said...

कविता में अधूरापन क्यों लग रहा है मुझे अंत में ? जैसे सपना टूट गया हो कोई !

Udan Tashtari said...

एक झोंका भटकता हुआ फ़ागुनी
थाम कर खिड़कियों को वहीं रुक गया
प्रीत के हाथ मेंहदी रचे देखने
और नीचे उतर कर गगन झुक गया


--गज़ब कल्पनाशीलता है साहेब!! नमन!! बहुत उम्दा गीत.

रंजना said...

सरस सुन्दर भावप्रवण मनोहारी इस गीत के लिए आभार.

शोभा said...

सुन्दर उपमान चुने हैं। बधाई।

Shardula said...

Guruji, now to resolve the traffic congestion in e-kavita, I am not going to give you my comments there. Consequently you & all your readers will have to bear with my full-fledged comments on your blog :( . So from all your friends out here: “ PLEASE FORGIVE ME :) !! I am an obtuse student of this genius who needs lots of explanation and inspiration”
Best Regards … Shardula