जब मन की बात उजागर कुछ
करने का मन हो जाता हो
लेकिन शब्दों की गलियों में
हर अर्थ भटक रह जाता हो
जब अपनी बात बताने को
भूमिका बनानी पड़ती है
दो पंक्ति सुनाने से पहले
सौ पंक्ति बतानी पड़ती है
तब होठों पर आकर वाणी
जैसे भी प्रस्फ़ुट होती है
तुम चाहे जो भी नाम रखो
कविता वह किन्तु न होती है
जब बिम्बों की परिभाषा से
जुड़ सकें न परिचय के धागे
व्याकरण, वाक्य के द्वारे पर
अपनी पहचानों को माँगे
जब भावों के उद्यानों से
कट जाते पंथ बहारों के
जब मन के उजियारे, बन्दी
हो जाते हैं अंधियारों के
तब किसी लेखनी से झरती
बून्दें जो पॄष्ठ भिगोती हैं
तुम नाम भले कुछ भी दे दो
कविता वह किन्तु न होती है
जब गज़ल गीतिका, नज़्में बस
नामों में सीमित रह जातीं
जब मुक्तक और रूबाई की
पहचान तलक भी खो जाती
जब सिर्फ़ सुनाने की खातिर
संयोजित शब्द किये जाते
जब परछाईं के सायों को
चित्रों के नाम दिये जाते
जब अर्थहीन बातों पर खुद
अनगिन शंकायें होती हैं
तुम नाम भले कुछ भी दे दो
कविता वह किन्तु न होती है
7 comments:
ये रात गये बिन फोन कनेक्शन के कैसे प्स्ट कर ली इतनी बेहतरीन रचना!!! वाह!! शायद दोपहर से ही क्यू कर दी हो....सही है!!
राकेश भईया, बडे दिनों बाद आपके ब्लाग में आया । बहुत सुन्दर शव्दों में यथार्थ से रूबरू कराती कविता को पढ कर मन प्रफुल्लित हो गया, आभार ।
जब मन की बात उजागर कुछ
करने का मन हो जाता हो
लेकिन शब्दों की गलियों में
हर अर्थ भटक रह जाता हो
जब अपनी बात बताने को
भूमिका बनानी पड़ती है
दो पंक्ति सुनाने से पहले
सौ पंक्ति बतानी पड़ती है
अच्छा लिखा है.
वाह ! सत्यम शिवम् सुन्दरम......एकदम सत्य कथन है आपका.अति सुंदर कविता.
आज बड़ा जोरदार मूड बना राकेश भाई, कुछ अलग सा , मगर आनंद आगया
समीर भाई सही पकड़ा आपने, दोपहर लंच के समय लिख कर क्यू में डाल दिया था.
सतीश भाई-- कभी कभी मूड अलग होना अच्छा होता है न !
संजीव जी-- असलियत के संजीदेपन को कभी कभी उथली नजर से देखना बेहतर होता है
शोभाजी एवं रंजनाजी-- जीवन की विसंगतियां जिन्हें हम अक्सर देख कर अनदेखा कर देते हैं , कभी कभी प्रेरित करती हैं कि उन्हें बखाना जाये.
सादर
राकेश
गुरुजी,
आज आपने खूब नचाया! तीन-तीन वेबसाईट घूमी, तब जा के ये कविता मिली।
अब ऐस लग रहा है कि शायद मुझ जैसे किसी नौसिखिये को (या मुझी को) ये डाँट लगायी है आपने! आपके सब वचन शिरोधार्य हैं !
सादर ।।
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