अतीत के झरोखों से
एक अनुभूति है जिसको चीन्हा नहीं
पर लगा हूँ उसे बाँह में भींचने
मेरे अहसास के दायरे में कहीं
हैं छुपे आप आते नहीं सामने
ढूँढते ढूँढते हैं निगाहें थकीं
पर बताया नहीं कुछ पता गाँव ने
एक आभास जैसे चली हो हवा
एक खुशबू कि जिसने मुझे है छुआ
एक सपना खडा नींद की कोर पर
एक मुट्ठी भरी धूप लाई उषा
रंग पानी से लेकर क्षितिज पर कहीं
रूप के चित्र फिर से लगा खींचने
कल्पना की सुराही से छलकी हुई
पी रहा हूँ मधुर ज्योत्सना की सुधा
चेतना का मेरी हर निमिष, आपके
ध्यान के सिन्धु में प्राण! डूबा हुआ
फूल की पाँखुरी में रही खोजती
चित्र बस आपके चांदनी की किरन
हर दिशा को रही खटखटा कामना
आरजुओं की कर प्रज्वलित इक अगन
फिर मिलन की उगें बेल कुछ, द्वार पर
दे के सौगन्ध उनको लगा सींचने
भोर की वीथियों में उगे ओस कण
आपके पाँव की हैं महावर बने
मोतियों सी सुघर एक पदचाप से
छन्द नूतन कई सरगमों के बने
आपके कुन्तलों से उठी इक घटा
नभ में बरखा के छींटे उडाने लगी
ओढनी के किनारे से पुरबा चली
वादियों में गज़ल गुनगुनाने लगी
आपका रूप आँखों से हो न विलग
दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने
6 comments:
वाह। क्या कहने।
अद्भुत-बहुत ही उम्दा.
रंग पानी से लेकर क्षितिज पर कहीं
रूप के चित्र फिर से लगा खींचने
आपका रूप आँखों से हो न विलग
दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने
बहुत खूब..
आपका रूप आँखों से हो न विलग
दोपहर से लगा हूँ पलक मींचने
sundar
ओह राकेश जी अगर आप इतना सुंदर लिखेंगें तो बाकियों का क्या होने वाला है । बाकियों के लिये भी तो कुछ छोडि़ये गीत ने मुझे जाने कौन कौन से विदा ले चुके कवियों की याद दिला दी । एक अच्छी रचना पढ़वाने के लिये आभार
भोर की वीथियों में उगे ओस कण
आपके पाँव की हैं महावर बने
मोतियों सी सुघर एक पदचाप से
छन्द नूतन कई सरगमों के बने
अद्भुत शब्द...लाजवाब भाव...अनूठी रचना.
वाह.
नीरज
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