आज समय ने चलते चलते कुछ ऐसे करवट बदली है
खेल रहे थे जो अधरों पर मेरे, सारे शब्द छिन गये
इन्द्र धनुष पर बैठ खींचता रहता है जो नित तस्वीरें
बुनता वह रेशम के धागे, वही बांध देता जंज़ीरें
अपने इंगित से करता है संयम काल चक्र की गति को
कभी रंग भरता निर्जन में, कभी मिटाता खिंची लकीरें
साहूकार! लिये बैठा है खुली बही की पुस्तक अपनी
और सभी बारी बारी से उसे चुकाते हुए रिन गये
कब कहार निर्धारित करता कितनी दूर चले ले डोली
कब देहरी या आंगन रँगते खुद ही द्वारे पर रांगोली
कठपुतली की हर थिरकन का होता कोई और नियंत्रक
कब याचक को पता रहेगी रिक्त, या भरे उसकी झोली
जो बटोर लेता था अक्सर तिनके खंडित अभिलाषा के
वही धैर्य अब प्रश्न पूछता रहता मुझसे हर पल छिन है
यों लगता है चित्रकथायें आज हुई सारी संजीवित
अंधियारों ने बिखर बिखर कर, सारे पंथ किये हैं दीपित
कलतक जो विस्तार कल्पना का नभ के भी पार हुआ था
कटु यथार्थ से मिला आज तो, हुआ एक मुट्ठी में सीमित
कल तक जो असंख्य पल अपने थ सागर तट की सिकता से
बँधे हाथ में आज नियति के, एक एक कर सभी गिन गये
7 comments:
आज समय ने चलते चलते कुछ ऐसे करवट बदली है
खेल रहे थे जो अधरों पर मेरे, सारे शब्द छिन गये
बहुत सही और सुंदर राकेश जी .जैसे मेरे दिल कि बात अपने इन पंक्तियों में लिख दी हो ..बहुत सुंदर लगी आपकी यह रचना !!
बहुत दिनों बाद आज टिप्पणी कर रहा हूँ. लेकिन आपकी सभी रचनाऎं पढ़ता रहा हूँ...यह रचना भी अच्छी लगी.
अभी अभी.. आपके परिवार में हुए हादसे की दुःखद खबर सुबीर जी कें चिट्ठे पर पढ़ी..शायद ऐसी घटनाएं सारे शब्द छीन ही लेती है....! मैने बड़े पास से देखा इन परिस्थितियों को....! अब शब्द मेरे पास भी नही है... कि आगे कुछ कह सकूँ...!
राकेश जी,बहुत ही बेहतरीन रचना है।पढ कर आनंद आ गया।
इन्द्र धनुष पर बैठ खींचता रहता है जो नित तस्वीरें
बुनता वह रेशम के धागे, वही बांध देता जंज़ीरें
अपने इंगिर से करता है संयम काल चक्र की गति को
कभी रंग भरता निर्जन में, कभी मिटाता खिंची लकीरें
बहुत सुन्दर रचना है ।
घुघूती बासूती
राकेश जी
आप की रचना की प्रशंशा में कुछ लिखना सूरज को दीपक दिखाने जैसा है...आप जैसे शब्द और भाव अन्यत्र कहीं ढ़ूढ़ पाना असंभव है. वाह...
नीरज
जो बटोर लेता था अक्सर तिनके खंडित अभिलाषा के
वही धैर्य अब प्रश्न पूछता रहता मुझसे हर पल छिन है
...अति उत्तम...उम्दा रचना!! बधाई.
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