Wednesday, February 13, 2008

एक पागल बदरिया बरसती रही

कलेंडर बता रहा है कि कहीं बसन्त के दिन हैं. खिड़की से बाहर झांकने पर सब कुछ सुरमई दिखता है और दरवाज़ा खोलते ही बर्फ़ीली रजाइयां लपेटे हुए हवा सीधी अन्दर तक तीर की तरह चीरती चली जाती है. अब इसे बसन्त कहें, या फ़ागुन की अगवानी . जाते हुए माघ्का प्रकोप या आने वाले सुखद दिनों की कल्पना की गरमाहट. असमंजस, उथल पुथल और अनिश्चय के क्षण कलम को भी भटका देते हैं. ऐसे ही भटकते भटकते राह में मिलते हुए शब्दों को पकड़ पकड़ कर एक लाइन में बिठा कर आपके सामने.


न था सावन, न भादों न आषाढ़ ही
एक बदली नयन से बरसती रही

भोर की गुनगुनी धूप में घुल गये
स्वप्न आंखों के सब उड़ गये इत्र से
दर्द सीने से मुझको लगाये रहे
एक बचपन के बिछुड़े हुए मित्र से
पर कटा, बन कबूतर गई कल्पना
छटपटाती रही एक परवाज़ को
उंगलियां थक गईं छेड़ते छेड़ते
तार से रूठ बैठे हुए साज को

एक गमले की सीमाओं में मंजरी
शाख से टूट कर नित्य झरती रही

शंख की गूँज से जाग पाया नहीं
भाग्य सोया हुआ, जाने कब का थका
आरती की खनकती हुई घंटियों
का विफ़ल स्वर, स्वयं साथ में सो गया
कोष आशीष के काम आये नहीं
अर्चना की बिखर रह गईं थालियाँ
रात थी दूर से मुँह चिढ़ाती रही
दिन उड़ाता रहा रोज ही खिल्लियाँ

वक्त की मेज पर एक गुलदान में
पंखुड़ी फूल की थी सुबकती रही

खटखटाते हुए थी हथेली छिली
द्वार प्राची ने खोला नहीं तम घटे
कोई आई इधर को नहीं चल किरण
जिससे छाया हुआ ये कुहासा छँटे
नाव टूटी लिये चल दिये सिन्धु में
बाँध संतोष, पी घूँट भर चाँदनी
स्वप्न लेकिन तरल, सोख कर ले गईं
आ उमड़ती हुई इक घटा सावनी

भग्न इतिहास की एक प्रतिमा, मेरे
आज को प्रश्न का चिन्ह करती रही

3 comments:

रजनी भार्गव said...

बहुत सुन्दर.

Unknown said...

बहुत बहुत सुंदर।

Sajeev said...

वक्त की मेज पर एक गुलदान में
पंखुड़ी फूल की थी सुबकती रही

kya kahne kaviraj