अब क्योंकि एक नाम से पोस्ट करे तो लोग पढ़ें या न पढें यह समस्या रहती है. समाधान ये कि एक ही पोस्ट को अलग अलग नामों से किया जाये तो कोई न कोई तो पढ़ेगा ही. देखें
http://vikashkablog.blogspot.com/2007/10/blog-post_02.html
और
http://iitbkivaani.wordpress.com/2007/10/02/%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%8c%e0%a4%b8%e0%a4%ae/
जी हाँ रचना एक ही है एक विकास के नाम से और दूसरी वाणी के नाम से. दोनों नारद पर एक ही दिन थोड़ा आगे पीछे आईं हैं. इसका मुख्य कारण तो शायद टिप्पणियों की तलाश ही है जिसके बारे में कई बार लिखा जा चुका है परन्तु सोये हुए पाठकों की उंगलियों में हरकत नहीं होती कीबोर्ड पर ठकठकाने के लिये.
अब हर कोई लाला समीर लाल तो हैं नहीं कि अपनी टिप्पणी लिये हमेशा इन्टर्नेट पर दौड़ता रहें और जैसे ही कोई पोस्ट हो उस प अपनी टिप्पणी का ठप्पा मार दें. जी यह काम भी बड़े जिगर वालों का है ( वैसे बड़े जिगर से परेशानियां भी होती हैं पर उनका ज़िक्र यहाँ जरूरी नहीं है )
कई बार तो बाकायदा निमंत्रनभेजा जाता आपको कि कोई आयें और अपनी टिप्पणी से नवाज़ें. पर हाय री किस्मत ! कुम्भकर्णी नींद में सोये पाठक की चेतना में जुम्बिश का प्रवेश नहीं हो पाता और बिचारी पोस्ट विधवा की मांग की तरह सूनी पड़ी रह जाती है टिप्पणियों के इन्तज़ार में.
अब आप सोच रहे होंगे कि भाई अब तो टिप्पणी करनी ही पड़ेगी लेकिन फिर यह जरूर सोचियेगा कि किस वाली पर करनी है. दोनों पर भी की जा सकती है क्योंकि केवल एक पर करने से डिसक्रिमिनेशन के भागी बन सकते हैं. अब देखिये न टिप्पणी के इन्तज़ार में हमने भी यह सब लिख डाला
नहीं इक प्रेरणा पाई थके हम पोस्ट कर कर के
हुए हैं बेवफ़ा वे भी जिन्हें समझा था हैं घर के
किसी की पोस्ट पर होतीं तिरेपन टिप्पणी देखो
यहां पर एक की खातिर कटोरा हाथ में थामा
न बदले में मिले हमको महज दो बोल आशा के
लुटाईं रिश्वतों में पास की हर एक थी उपमा
लगाई आस बोलेगा कभी तो कोई चढ़ सर पे
हुए हैं बेवफ़ा वो भी जिन्हें समझा था हैं घर के
लिखीं ईमेल पिच्चासी, किये फिर फोन दो दर्जन
नहीं पर हो सका फिर भी किसी के मन का परिवर्तन
रहे हम ताकते, बैरंग खत बन कर सभी लौटे
हमरी पोस्ेट बन कर रह गई गोपाल बस ठनठन
न भूला रास्ता कोई, लगाये दस्तकें दर पे
हुए हैं बेवफ़ा वे भी जिन्हें समझा था हैं घर के
उमीदे टिप्पणी अपनी सभी बस टुट कर बिखरीं
न शुक्लाजी, न प्रत्यक्षा न नारद की कोई तिकड़ी
गई जो पार नभ के तश्तरी, लौटी नहीं उड़ कर
बिचारी पोस्ट देखो रह गई तूफ़ान में छितरी
लिखा कीबोर्ड को हमने ये आँसू में डुबो कर के
मिलेगी दाद जैसे पात कोई पेड़ से झर के
भाई अब तो टिपिया दो नहीं तो हमें भी यही पोस्ट अलग अलग नामों से दस- बारह बार डालनी पड़ेगी
8 comments:
लिखा कीबोर्ड को हमने ये आँसू में डुबो कर के
मिलेगी दाद जैसे पात कोई पेड़ से झर के
--यह लिजिये पहली पात. :) हा हा!!
गीतकार जी, विकास IIT, Mumbai के छात्र हैं एवं हिन्दी के प्रति समर्पित. पहला वाला ब्लॉग उनका व्यक्तिगत प्रयास है. दूसरा, वाणी, IIT, Mumbai की हिन्दी संस्था है जिसमें न सिर्फ विकास बल्कि अन्य लोग भी छपते हैं. विकास ने इस संस्था के नामकरण के लिये एक बार अपने ब्लॉग से सुझाव भी मांगे थे और वाणी नामकरण हो जाने पर सूचना भी दी थी. मुझे लगता है कि यह महज इत्तेफाक है कि दोनों जगह रचना एक ही समय आ गई.
लिखीं ईमेल पिच्चासी, किये फिर फोन दो दर्जन
नहीं पर हो सका फिर भी किसी के मन का परिवर्तन
रहे हम ताकते, बैरंग खत बन कर सभी लौटे
हमरी पोस्ेट बन कर रह गई गोपाल बस ठनठन
वाह-वाह राकेश जी सही कह रहें आप
खूब हँसाया भाई...बधाई
समीर सही कह रहे हैं. विकास हिन्दी के लिये गंभीरता से समर्पित हैं. ये सिर्फ इस संयोग ही होगा.
वैसे अगर आप अपनी रचना को दुबारा तिबारा छपाना चाहें तो शास्त्री जी के यहां भी तो ठेल सकते हैं:)
राकेश जी! वस्तुतः वाणी का ब्लोग मैंने कल ही बनाया था. लोग ये कह रहे थे कि अपनी कवितायें तभी देंगे, जब तुम्हारी भी कवितायें वहाँ हों. अब मैं तो ठहरा कुएँ का मेंढ़क, सिर्फ अपने ब्लोग पर ही लिखता हूँ. तो मेरी सारी रचनाएँ निजी ब्लोग पर पहले से ही थी...और कवित्व मेरे अन्दर इतने प्रबल रूप से तो है नहीं कि तुरत एक और लिख मारता. सो, जो अंतिम रचना थी, वही पोस्ट कर डाली.
लेकिन देखता हूँ कि आपकी टिपण्णी फिर भी नहीं आयी. ;) खैर, इतनी अच्छा व्यंग्य पढ़ने को मिला. आभार आपका.
(एक बैक्लिंक जो बढ़ गया.)
जी टिप्पणी मिलेगी और जरूर मिलेगी.लेकिन आप ही हमारे द्वारे नहीं आते.हम तो आते है आते रहेंगे..भले ही आप आयें ना आयें.
लीजिए हम भी उतर आये हैं आपके इस मैदान में कुछ टिपीयाने…
शानदार लिखा है थोड़ा और भी पढ़ने को दिल कर रहा था…।
राकेश जी हम भी लाईन में हैं टिप्पणी देने के लिये,
बहुत अच्छा लिखा है.
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