
रामचरित मानस की जैसे मंदिर में गूँजे चौपाई
यज्ञभूमि में बहें ॠचायें मंत्रों की ध्वनियों में घुल कर
प्राची अपने मुख पर ओढ़े ऊषा की जैसे अरुणाई
चांद बैठा रहा खिड़कियों के परे, नीम की शाख पर अपनी कोहनी टिका
नैन के दर्पणों पे था परदा पड़ा, बिम्ब कोई नहीं देख अपना सका
एक अलसाई अंगड़ाई सोती रही, ओढ़ कर लहरिया मेघ की सावनी
देख पाया नहीं स्वप्न, सपना कोई, नींद के द्वार दस्तक लगाता थका
छंद रहता है जैसे मेरे गीत में, तुम खयालों में मेरे कलासाधिके
राग बन कर हॄदय-बाँसुरी में बसीं, मन-कन्हाई के संग में बनी राधिके
दामिनी साथ जैसे है घनश्याम के, सीप सागर की गहराईयों में बसा
साँस की संगिनी, धड़कनों की ध्वने, संग तुम हो मेरे अंत के आदि के
गीत मेरे अधर पर मचलते रहे, कुछ विरह के रहे, कुछ थे श्रंगार के
कुछ में थीं इश्क की दास्तानें छुपीं,और कुछ थे अलौकिक किसी प्यार के
कुछ में थी कल्पना, कुछ में थी भावना और कुछ में थी शब्दों की दीवानगी
किन्तु ऐसा न संवरा अभी तक कोई, रंग जिसमें हों रिश्तों के व्यवहार के.
आपने अपना घूँघट उठाया जरा, चाँदनी अपनी नजरें चुराने लगी
गुनगुनाने लगी मेरी अंगनाईयां भित्तिचित्रों में भी जान आने लगी
गंध में फिर नहाने लगे गुलमोहर रूप की धूप ऐसे बिखरने लगी
आईने में चमकते हुए बिम्ब को देखकर दोपहर भी लजाने लगी
सावनी मेघ की पालकी पर चढ़ी एक बिजली गगन में जो लहराई है
रोशनी की किरन आपके कान की बालियों से छिटक कर चली आई है
कोयलों की कुहुक, टेर इक मोर की, या पपीहे की आवाज़ जो है लगी
आपके पांव की पैंजनी आज फिर वादियों में खनकती चली आई है.
संतरा
खाया छमिया ने
फ़ेंका उसका छिलका
अटक गया बबूल में
भिनसारे का चाँद
नदी की नाव
लुटेरों का घर
हाय रे हाय
धनिये की पुड़िया
और तिरछी नजर
हाथ में
क्या है ?
क्या नहीं है
क्या होना था
चान्द ?
फ़ावड़ा ?
या भावनाओं का तसला ?
उफ़
यह कुंठा
यह संत्रास
रे मन
खांस खांस खांस !!!!
मन के कागज़ पे बिखरे जो सीमाओं में,रंग न थे, मगर रंग थे आपके
बनके धड़कन जो सीने में बसते रहे,मीत शायद वे पदचिन्ह थे आपके
जो हैं आवारा भटके निकल गेह से आँसुओं की तरह वो मेरे ख्याल थे
और रंगते रहे रात दिन जो मुझे, कुछ नहीं और बस रंग थे आपके
देख पाया है जिनको ज़माना नहीं. रंग थे मीत वे बस तुम्हारे लिये
रंग क्या मेरे तन मन का कण कण बना मेरे सर्वेश केवल तुम्हारे लिये
सारे रंगों को आओ मिलायें, उगे प्रीत के जगमगाती हुई रोशनी
रंग फिर आयेंगे द्वार पर चल स्वयं, रंग ले साथ में बस तुम्हारे लिये
आपके आगमन की प्रतीक्षा लिये, चान्दनी बन के शबनम टपकती रही
रात की ओढ़नी जुगनुओं से भरी दॄष्टि के नभ पे रह रह चमकती रही
मेरे आँगन के पीपल पे बैठे हुए, गुनगुनाती रही एक कजरी हवा
नींद पाजेब बाँधे हुए स्वप्न की, मेरे सिरहाने आकर मचलती रही
मेरी अँगनाई में मुस्कुराने लगे, वे सितारे जो अब तक रहे दूर के
दूज के ईद के, चौदहवीं के सभी चाँद थे अंश बस आपके नूर के
ज़िन्दगी रागिनी की कलाई पकड़, एक मल्हार को गुनगुनाने लगी
आपकी उंगलियाँ छेड़ने लग पड़ीं तार जब से मेरे दिल के सन्तूर के.
आप की याद आई मुझे इस तरह जैसे शबनम हो फूलों पे गिरने लगी
मन में बजती हुई जलतरंगों पे ज्यों एक कागज़ की कश्ती हो तिरने लगी
चैत की मखमली धूप को चूमने, कोई आवारा सी बदली चली आई हो
याकि अंगड़ाई लेती हुइ इक कली, गंधस्नात: हो कर निखरने लगी