अर्घ्य चढ़ा कर मंत्र बोल कर सूरज
चन्दा को आराधो
जितना चाहो इष्ट बनाकर सुबह शाम रजनी में साधो
भूलो नहीं, दीप ने देखी नहीं कभी अपनी परछाई
सत्ता में वे कुटियां भी हैं किरणें जिनके द्वार न आई
जितना चाहो इष्ट बनाकर सुबह शाम रजनी में साधो
भूलो नहीं, दीप ने देखी नहीं कभी अपनी परछाई
सत्ता में वे कुटियां भी हैं किरणें जिनके द्वार न आई
खुली पलकने बुनी निरंतर एक प्रतीक्षा उजियारे की
रातें रही जगाती आशा उत्तर के चमके
तारे की
देते रहे दिलासे सपने पाहुन अँधियारा
पल भर का
लेकिन रही आस ही जलती एक बार फिर अंगारे सी
लेकिन रही आस ही जलती एक बार फिर अंगारे सी
रही अपरिचित इन गलियो से प्राची की
बिखरी अरुणाई
और यहीं पर है वे कुटियों किरणें जिनके द्वार न आई
और यहीं पर है वे कुटियों किरणें जिनके द्वार न आई
युग बीते पर जीवन अब भी चला जहां पर
घुटनो के बल
किरच तलक भी अभिलाषा की देती नहीं जहाँ आ सम्बल
जहा धरा नभ् सब लिपटे हैं घनी अमावस के साये में
जहां समय ने आकर बदला नहीं आज में, बीत गया कल
किरच तलक भी अभिलाषा की देती नहीं जहाँ आ सम्बल
जहा धरा नभ् सब लिपटे हैं घनी अमावस के साये में
जहां समय ने आकर बदला नहीं आज में, बीत गया कल
उन राहों पर प्रश्न सहमते उत्तर ने भी
नजर चुराईं
शायद कोई बतला पाये क्यों कर किरणें द्वार न आई
शायद कोई बतला पाये क्यों कर किरणें द्वार न आई
उजियारे के अधिकारी हैं वे भी उतने, जितने तुम हम
दोषी तो हैं सूरज चन्दा, हारे देख तिमिर का दम ख़म
चलो उगाये नव वितान में एक नया सूरज हम मिलकर
ताकि रहे न शेष कही पर अंश मात्र भी छुप करके तम
दोषी तो हैं सूरज चन्दा, हारे देख तिमिर का दम ख़म
चलो उगाये नव वितान में एक नया सूरज हम मिलकर
ताकि रहे न शेष कही पर अंश मात्र भी छुप करके तम
नए पृष्ठ पर वक्त लिखे आ जहां न कल तक
आई किरणें
उन द्वारों पर उतरी ऊषा लिय करे पहली अंगड़ाई
उन द्वारों पर उतरी ऊषा लिय करे पहली अंगड़ाई
4 comments:
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