Tuesday, June 28, 2016

चेतन का संक्रातिकाल है


कातर मन उठ! और थाम ले जो सन्मुख जलती मशाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रातिकाल है

गली व्यवस्था को उखाड़ना जड़ से है हाथों में तेरे
तेरा निश्चय ले आएगा परिवर्तन के नए सवेरे
हिले नहीं तेरा अंगदपग निष्ठां पूरी से जो रोपे
हो जाएंगे सभी तिरोहित तेरे पथ में घिरे अँधेरे

उत्तर दे! तेरी साँसों का जो तुझसे जलता सवाल है
भूल नहीं यह पल भर को भी चेतन का संक्रातिकाल है

जितनी चाहे। कर शिकायते  कुछ बदलाव नहीं आएगा
जब तक तू अपने निश्चय को फौलादी न कर पायेगा 
सावित्री के संकल्पों को यदि अपना आधार बना ले
क्या हस्ती भ्रष्टाचारी की,, स्वयं काल भी झुक जाएगा  

दुहरा देख तनिक मिलती इतिहासों में जिसकी मिसाल है
भूल नहीं पल भर को भे एयह चेतन का संक्रान्तिकाल है

जरासन्ध से शिशुपालों की सत्ता कितनी देर टिकी है
धुन्ध सूर्य की प्रखर रश्मियां, आखिर कितनी देर ढकी है
हो हताश मत, कर स्वतंत्र तू अपने चिन्तन को अनुरागी
तुझे विदित परिवर्तन की गति, रोके से भी नहीं रुकी है


रोक न उसको धधक रही जो अन्तर्मन में एक ज्वाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है

2 comments:

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