केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन को थाली में
दीपित रहे स्वस्ति माथे पर जैसे दीप दीवाली में
प्राची की क्यारी में उगते जवाकुसुम को चुन चुन कर
ऊषा की स्वर्णिम चूनर पर सिन्दूरी रंग टाँक रहा
जाती हुई विभा के आँचल को अक्षत में बुन बुन कर
कीर्ति पताका को लहराने के संचित पल आँक रहा
भरता है सोनहरी रंगत हर इक घड़ी उजाली में
केसर घोल रहा है सूरज अभिनन्दन को थाली में
भरता है उंड़ेल कर अनगिन कनी हीरकी शब्दों में
कलियों के अधरों पर जड़ देता मुस्कानें धीरे से
देता नई प्रेरणा पाखी के पर को उड़ान भरने
लहरों को पहनाता स्वर्णिम हार, खड़ा हो तीरे पे
करता है संचार प्राण का हर पत्ती हर डाली में
केसर घोल रहा है सूरज अभिनन्दन को थाली में
सप्त अश्व के पग में भर कर सप्तसुरी मोहक सरगम
दोपहरी की खिड़की पर जड़ विजय घोष का सम्बोधन
दीवारों पर जड़े कक्ष की मानपत्र की आकृतियाँ
प्रगति पंथपर गतिमय पग को देने ्को नव उद्बोधन
ज्योति सुधा भरने को आतुर हर इक आँजुर खाली में
केसर घोल रहा है सूरज अभिनन्दन को थाली में
No comments:
Post a Comment