Wednesday, December 11, 2013

अंधेरा धरा पर कही रह न जाये

अंधेरा धरा पर कही रह जाये
 
 
 
 

रखो आज दीपक जलाकर रजत के
या मणियों जड़ी एक बाती जलाओ
रखो पूर कर चौक, आटे का दीपक
या टिमटिम कोई एक् ढिबरी जलाओ
मन याद रखो कि मन के अन्धेरें
हर इक कक्ष में रोशनी जाये पहुँचे
उठो है निमंत्रण तुम्हें वक्त देता
नई एक इक फिर कहानी से सुनाओ
 
है परिवर्तनों की अपेक्षायें तुमसे
कोई कमना अधखिली रह न जाये
 
अंधेरा चढायें है अनगिन मुखौटे
कभी कायदे का कभी सीरिया का
कभी सिन्धु की लहर कर नृत्य करता
कभी वेश धारे यह सोमालिया का
कभी रैलियों में ये विस्फ़ोट करहा
रहा ओढ़ कर स्वार्थ के कुछ कलेवर
न जड़ से मिटे न उभर फिर से आता
लिर्फ़ रूप यह फिर से ट्यूनीसिया सा
 
उठो आज तुम बाल लो एक बाती
अखंडित रहे, हर तिमिर को मिटाये
 
तिमिर कितना धर्मान्धता का बड़ा है
रहा रोकता ये मलालायें कितनी
मदरसों में तालीम का ले बहाना
रहा बोता नफ़रत की ज्वालायें कितनी
चलो आओ संकल्प लें इक नया अब
अंधेरा भरे ज्ञान की रोशनी से
रहे हर जगह पूर्व का ही सवेरा
जला कर रखें हम पताकायें इतनी
नई कूचिया ले लिखें नव कथानक
ये इतिहास खुद को कभी दुहरा न पाये
 

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