Tuesday, February 7, 2012

खुली आज स्मृति की मंजूषा

संध्या के ढलने से पहले अम्बर की देहरी पर आकर
खड़ा हो गया चाँद दूज का प्रश्नसूचियाँ लिये हाथ में
उसकी दृष्टि साधनाओं से खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

यौवन से ले विदा गई थी मोड़ तलकउम्र साथ में लेकर बचपन की गठरी
नयन वादियों में सपनों की अठखेली,होती निशादिबस लहरों की करवट सी
तितली के पंखों पर बूटों सी आशा और भावना ओस गिरी ज्यों पांखुर पर
चित्र कल्पना दिन के पृष्ठों पर रँगती, डगर लगा करती थी हर इक पनघट सी

वे सब दिवस खुले पत्रों से उड़ते पंछी के पर जैसे
आज अचानक आकर मुझको आवाजें दे रहे रात में
उनके शब्दों की सरगम से खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

करती थी घोषणा घड़ी दस बजने की, दृष्टि गली में जाकर के बिछ जाती थी
हरकारे की पदचापें सुन पाने को, कान हवा से चुप रहने को कहते थे
आतुरता अधीर हो होकर खिड़की के पल्लों को बस थामे लटकी रहती थी
शकुन अपशकुन आशंकायें ले लेकर अभिलाषाओं को नित घेरे रहते थे

संदेशों के शब्द लिये जो हर पल मन को महकाते थे
वे गुलाब के फूल रहे जो छुप कर के मन की किताब में
उनकी उड़ी गंध सहसा ही खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

अग्नि लपट जब सूत्र एक सिन्दूरी बन, बांध गई थी मन के रसभीने बंधन
सिक्त चांदनी में जूही के फूलों से वे पल चित्र खींचते थे जो पाटल पर
उनसे छिटकी हुई रंगमय आभायें, कात कात सपनों के सतरंगी धागे
नये नये सन्दर्भ बनाया करती थीं आगत के नित कोरे श्वेता आँचल पर

कितने ढले शिल्प में अपने कितने फिर आधार हो गये
नीर चढ़ाया मनकामेश्वर कितनी संध्या साथ साथ में
वे पल फिर उभरे नयनों में खुली आज स्मृति की मंजूषा
गीत लिख गये थे जब अनगिन बिना बात ही,बात बात में

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