Monday, April 4, 2011

अब बिलकुल स्पष्ट हैं

जितने शब्द कोश में थे,उनमें से भरी एक ही मुट्ठी
यद्यपि था उपलब्ध समूचा ,लेकिन हठी हमीं ही तो थे
ओढ़ मुखौटा अपनी ज़िद का कहा नहीं अब और नहीं बस
इससे ज्यादा नहीं ले सकेंगे हम ज्यादा व्यस्त हैं


अपनी सीमाओं में बन्दी रहे कूप मंडूक बने हम
कोई दुनिया नहीं दृष्टि की सीमाओं से आगे जानी
आईना जब देखा तब भी अपना बिम्ब नकारा हमने
और कह दिया सही एक हम हैं,बस तारे रुष्ट हैं

हम होकर चौकोर चाहते एक छिद्र से बाहर नुकलें
जैसे एक अंगूठी में से निकली थी ढाका की मलमल
जब थे रहे अटक कर तब भी अपनी कमजोरी न मानी
कहा न सीधा कोई चलता, जितने हैं सब भ्रष्ट हैं

लेकिन जब वक्तव्य हमारे ,होने लगे सवाली हमसे
तब मरीचिकाओं के पीछे छोड़ा हमने नित्य भागना
और धरा से जुड़ कर हमने देखा ,पढ़ा और यह जाना
भाषा और कथानक दोंनो अब बिलकुल स्पष्ट हैं

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