Monday, January 31, 2011

शब्द नहीं बतला पाते हैं.

जो कहते हैं शब्द सदा वह उनका अर्थ नहीं होता है
और अर्थ जो होता उसको शब्द कहाँ बतला पाते हैं

भाषा की सीमा तो केवल शब्दों की सामर्थ्य रही है
कितना व्यक्त करें निर्भर है कितना उनमें होती क्षमता
काट पीट कर एक भाव को बिठला देना है सांचे में
व्याख्यित न कर पाना सचमुच शब्दों की ही तो दुर्बलता

उड़ना चाहा करते मन के भाव निरन्तर नील गगन में
लेकिन शब्दों के पर उनको कब उड़ान भरवा पाते हैं

दृष्टि किरन के सम्मोहन से जागी हुई ह्रदय की धड़कन
कहाँ शब्द की सीमाओं में, विस्तारित ढलने पाती है
घड़ियाँ आतुर मधुर मिलन की या बिछोह के पल एकाकी
भला शब्द की सरगम उनको कब बतलाओ गा पाती है

तंत्री की वीणा ने छेड़ी जन भी कोई रागिनी कोमल
उलझे रह जाते अक्षर में शब्द नहीं बतला पाते हैं

शब्द नहीं जो शब्दों की कातरता को ही वर्णित कर दें
शब्द नहीं जो शब्दों में कर सकें व्यक्त मन की भाषायें
शब्द नहीं जो आ होठों पर करें शब्द की ही परिभाषा
शब्द नहीं जो ढाई अक्षर की बतला पायें गाथायें

रह रह कर अभिव्यक्त न कर पाने की अपनी असफ़लतायें
मन मसोस कर रह जाते हैं शब्द नहीं बतला पाते हैं

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