प्रियतम तेरे इन्तज़ार में पिछले दो महीने में मैने
घर में जितनी मूँग रखी थी वो सारी की सारी दल दी
हफ़्ते भर का वादा करके गये पर्यटन को तुम बाहर
और कहा था थोड़ा सा है काम उसे कर के आता हूँ
थोड़े से पकवानों की तुम फ़रमाईश कर मुझे गये थे
कहकर अभी लौटकर इनको साथ तुम्हारे मिल खाता हूँ
इसीलिये मैने बज़ार से ताजा सभी मंगा कर रखे
जीरा,धनिया,सौंफ़ हींग के संग संग अजवायन और हल्दी
रबड़ी का कुल्ला मंगवाया था हलवाई से जो परसौं
डेढ़ किलो वह मैने ही बस जैसे तैसे निपटाया है
कलाकंद,रसगुल्ले,लड्डू, बालूसाही और जलेबी
इनके सिवा न कुछ भी मैने बिना तुम्हारे प्रिय,खाया है
पिट्ठी जो मँगवा रक्खी थी दहीबड़ों की खातिर मैने
दरवाजे पर नजर टिकाये,जाने कैसे मैने तल दी
लिए गिट्स के पैकेट जो थे चार रवे की इडली वाले
उन्हें बनाया, साथ ढोकला दो पैकेट तैयार किया था
और पड़ोसन ने भी परसौं चार पांच सौ बना लिए थे
दाल मूंग की भरे समोसों का मुझको उपहार दिया था
बाट जोहते मीत तुम्हारी पता नहीं क्या मुझे हो गया
मेरी परछाईं आकर के इन सब को खा पीकर औ चल दी
6 comments:
रबड़ी का कुल्ला मंगवाया था हलवाई से जो परसौं
डेढ़ किलो वह मैने ही बस जैसे तैसे निपटाया है
कलाकंद,रसगुल्ले,लड्डू, बालूसाही और जलेबी
इनके सिवा न कुछ भी मैने बिना तुम्हारे प्रिय,खाया है
-बड़ा हल्का खाया विरह में... :) हमें भी बुला लेते..थोड़ा गम बांट लेते..और खाना भी. ...
हा हा!! मजा आ गया...भाई जी!!
वाह क्या बात है इन्तजार में खान पान बात ही कुछ ओर है
बस इतना ही निपट सका...
बाकी का क्या ;)
इतनी चेज़ें अकेले खा गये? शुभकामनायें।
हम्म.... इतना सारी खाने की चीजें, हमें भी बुला लेते!
राकेश जी, आपकी इस रचना की जितनी तारीफ करूँ उतना कम है, हास्य-व्यंग लिखता हूँ तो जहाँ हास्य-व्यंग मिलता है दिल डूब जाता है और आपकी इस प्रस्तुति के तो कहने ही क्या एक सहज हास्य उत्पन्न करती हुई एक बेहतरीन कविता...मुझे तो बहुत ही अच्छा लगी..मजेदार रचना..प्रस्तुति के लिए ढेर सारी बधाई...प्रणाम
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