झर गये पत्र सब पेड़ की शाख से
तीन सौ साठ के सँग रहे पाँच वे
कुछ हरे,पीत कुछ, कुछ थे सूखे हुए
पारदर्शी रहे ज्यों बने काँच के
कुछ किरण स्वर्ण से थी नहाई हुई
और कुछ ओढ़ कर चाँदनी को मिली
कुछ चलीं गांव को छोड़ कर, राह में
थी भटकती रहीं मंज़िलें न मिली
स्वप्न ने अल्पनायें रँगी नैन में
आस ने थे नये कुछ गलीचे बुने
कुछ स्वरों ने निरन्तर थी आवाज़ दी
और कुछ सुर किसी ने तनिक न सुने
बीत जाते पलों ने लिखे पॄष्ठ कुछ
खिंच गई याद की इक ्नई वीथिका
एक इतिहास फिर से संवारने लगा
दो कदम साथ बस जो चली प्रीत का
जम गई धूल पहले गिरे पत्र पर
एक अंकुर नया फिर दहकने लगा
एक बूढा बरस शायिका पर गिरा
बालपन का दिवस इक चहकने लगा
क्या खबर है उसे ? उसकी परिणति वही
जोकि जाते हुए की हुई आज है
आज आरोह ले जो खडा गा रहा
बस उसी ने ही कल खोनी आवाज़ है
इसलिए आओ हम आज को बाँध लें
हाथ अपने बढ़ा मुट्ठियाँ बंद कर
कौन जाने लिखे क्या समय की कलम
कल पुराने हुए एक अनुबंध पर
6 comments:
अच्छा अच्छा ही लिखा जायेगा भाई जी..आप तो आप ही हैं न..वरना हम समय से लड़ जायेंगे. :)
सुन्दरतम रचना!!
मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.
नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.
यादों की नई वीथिका प्रयोग बहुत सुन्दर लगा। पूरी कविता ही टटकेपन को सँजोए हुए है।
आभार।
बीते साल और नये साल का बहुत ही अच्छा वर्णन किया है राकेश जी आपने । बहुत ही खूबसूरत ढंग से बांधा है गीत को । ऐसा लगता है जैसे कि हौले हौले गीत के साथ साथ पूरा वर्ष ही चल रहा हो । मेरा सुझाव है कि आदरणीय भाभी जी से कह दीजियेगा कि आपकी लेखनी पर राई नोन उतार कर चौराहे पर फैंक दें, इतना अच्छा लिखेंगें तो नजर तो लगेगी ही । नये साल की मंगल कामनाएं आपको, आदरणीय भाभीजी को और डाक्टर बिटिया को । आप यूं ही सिरजते रहें अपने छंदों से गीतों से लोगों का मन मोहते रहें ।
"स्वप्न ने अल्पनायें रँगी नैन में
आस ने थे नये कुछ गलीचे बुने
कुछ स्वरों ने निरन्तर थी आवाज़ दी
और कुछ सुर किसी ने तनिक न सुने"
मैं कुछ कह कहाँ पाता हूँ यहाँ ! रम्य-रचना का रम्यांतर है यह ब्लॉग ! सरस-राग की पोटली है ब्लॉग ।
नववर्ष की शुभकामनायें ।
aap ko nayaa saal shubh ho aur maa sarsvati kaa niwas aap ki lekhni mae rahey
सादर नमन.
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